'राजधानी,भाग रही है
तेज गति से
पीछे छूट रहा है
खेत, बाग, गांव, शहर
'जनता,रोक दी गयी है
आउटर पर
राजधानी तो राजधानी है
उसके हर एक्शन को
हमें सहना है
बेचारी 'जनता,
कल भी आउटर थी
आज भी आउटर पर है
और उसे कल भी
आउटर पर रहना है ।
क्योंकि -
बिखर गयी है 'श्रमशक्ति,
'शताब्दी, के लिए हर रास्ता खुला है
'जनसाधारण, को
न तो कल प्लेटफार्म मिला था
नाही आज प्लेटफार्म मिला है ।
काशी विश्वनाथ, प्रयाग, चित्रकूट, सारनाथ
लालकिला के सामने
प्रश्न चिन्ह बड़े बड़े हैं
'वैशाली, और 'मगध, के पहिये
अभी भी लूप लाइन पर खड़ी हैं
ताज पर राजनीत की काली छाया है
उसे सुपर एक्सप्रेस का दर्जा
अभी तक नहीं मिल पाया है ।
मैं बंद फाटक के सामने
खड़ा हो कर सोचत हूँ
कि-
आम आदमी 'सम्पूर्ण क्रांति, के लिए
लड़े तो कैसे लड़े तो कैसे लड़े
ओ भी तो दशकों से
इसी फाटक पर खड़ा है
आखिर 'सम्पर्क क्रांति, के पायदान पर
चढ़े तो कैसे चढ़े
राप्तीसागर, महानंदा, ब्रम्हापुत्रा, गोमती का
उतर गया है पानी
भ्रस्टाचार के प्रदुषण के चलते
पहले जैसे नहीं रही
'गंगा-जमुना, की रवानी।
पीछे छूटने लगा है
विश्वास का स्टेशन वाला घाट
हमें पढ़ाया जाता है
और सिर्फ पढ़ाया 'जन-सेवा, का पाठ।
काश कभी 'संगम, हो जाये
हमारी घूँघट वाली, ओढ़नी वाली, संस्कृति का टेक्नोलाजी से
ज्ञान-गंगा, निकले पूरे रंगबाजी से
देखते ही देखते
हमारी 'कैफियत, बदल जाये
और ये अधनंगा विश्व हमें
फिर से गुरुदेव कह के बुलाये |
साबरमती से एक बार फिर
यह आवाज आये
कि-
हिंदुस्तान में दोबारा कहीं भी
'सदभावना, न जलायी जाये
और 'समझौता, हो तो सिर्फ प्रेम का
एक 'प्रेम एक्सप्रेस,
ढाका से, वाया दिल्ली लाहौर तक जाये
शहीद आउट ऑफ़ कवरेज न रहे
यहाँ से वहां तक
हर शख्स ,एक स्वर में
बन्दे मातरम् कहे ।