याद सिर्फ सफ़र की होती है, मंजिल की नहीं!
जानती हो-
सुनो न! सुनो न! कहना,
सुना देने से ज़्यादा अच्छा लगता है....
बार बार मिलने का बहाना,
मिल लेने से ज़्यादा मज़ा देता है.
ठीक वैसे ही, जैसे-
बारिश के इंतज़ार में,
लिखी नज़्म और कविता येँ,
खुद, बारिश से ज़्यादा भीगी लगतीं हैं.
बिलकुल जैसे-
अधखिली कलि और उलझी पंखुड़ियाँ,
खिले गुलाब से ज़्यादा नशीली लगती हैं.
बचपन में, झट से बड़े हो जाने की हसरतें,
सच में, बड़े हो जाने से ज़्यादा गुदगुदी देती हैं.
और, सच भी तो है-
किसी की तड़प में बितायी रातें,
आंसुओं से भीगा वो गीला लिहाफ,
मोहब्बत का वो मंज़र,
उसके अंज़ाम से ज्यादा हसीन है.
बोलो न! क्या-
तुम्हे पा जाने का एहसास,
तुम्हे पा लेने से ज्यादा ख़ूबसूरत है?
शायद-
इस जवाब के इंतज़ार में भी,
ज़वाब मिलने से ज़्यादा सुकून है,
आखिर,
याद सिर्फ ‘याद’ रह जाती है,
और ‘याद’ सिर्फ सफ़र की होती है,
मंज़िल की नहीं.
इश्क़ भी हर उस सब से है,
जो तुमसे जुड़ा है,
तुमसे छुआ है,
सिर्फ़ तुम्हीं से नहीं.
-- Abhaya Mishra
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