आज़ याद तुम्हारी,मेरी आंखों में उतर आई है,पूछ रही हूं पता ऑफ़िस की आगे वाली पहाड़ी से,
सब कहते हैं जबसे, तुमने मुझसे बातें करना छोड़ दी है,
तुम उधर ही अपना खाने का डब्बा खोलते हो,
दो रोटी ख़ुद खाते,मेरे हिस्से का चिड़ियों को खिला दिया करते हो!
आज़ याद तुम्हारी, मेरी आंखों में उतर आई है,
पुराने किताबों में,तुम्हारा दिया फ़ूल ढूंढके
मन ही मन मुस्काती हूं,
ऐसा क्या है तुममें,मेरा जो मैं समझ नहीं पाती हूं,
ये गुलाबी रंग का जयपुरी दुपट्टा,कॉलेज की लास्ट ईयर की पढ़ाई के बाद,
तुमने अपने पैकेट मनी से बचा,सबसे नज़र बचा,मुझे थमाई थी,
आज़ याद तुम्हारी, मेरी आंखों में उतर आई तो मैंने दुपट्टे को सिर पे सजा,अधूरे प्रेम की रागिनी गुनगुनाई है!
आज़ याद तुम्हारी, मेरी आंखों में उतर आई है,
कोरे सपने बुनते बुनते,ये ज़िंदगी हमें किस मोड़ पे ले आई है,
वादा किया कि हमेशा एक दूजे के वास्ते अधूरे रहेंगे हम,
चाहे सावन बीते या पतझड़ मरघट पसारे
गीतों में हम बसंत - ऋतु - राग रहेंगे,
आंखों ही आंखों में कटी जवानी,
बुढ़ापे में क्या ख़ाक करेंगे,
मिले, न मिले हम
मर्ज़ी या खुदगर्जी कह लीजिए हमारी,
किताबों में बहुत पढ़ा प्रेम,जैसे सबकी कटती है, वैसे ही हमारी भी गुजर जायेगी,
कौन आसमां से उतर आए हैं जो धरा पर बिखेर दिए जायेंगे,
कागज़ के फ़ूल सरीखे इश्क़ हमारा
जबतलक शीशे में रक्खा है तबतलक महफूज़ लगते हैं
जिस दिन लगा दिया ना बागों में
बच्चे भी गुलाब समझ तोड़ कर फेंक दिया करते हैं!
आज़ याद तुम्हारी, मेरी आंखों में उतर आई है,
अधूरे किस्सों में पूरा, इश्क़ हमारा
नाम हमारा इतिहास होगा
लिखते रहेंगे,लिखते रहेंगे.....
और जो कभी पूरी न हो
इक ऐसी ही कहानी बनेंगे
हम एक दूजे के लिए अधूरे में ही पूरे रहेंगे।
प्राची सिंह "मुंगेरी"