कृतज्ञ हूं हे प्रकृति
कृतज्ञ हूं हे प्रकृति
जब तुम सुबह बनके आती हो
प्राची की दिव्यता लिए
नवपथ से गमन करते धरा का श्रृंगार करती हो!
कृतज्ञ हूं हे प्रकृति
गोधूलि बेला में,कैसे सम्पूर्ण आकाश को,केशरियां रंग में रंग,अपना आलौकिक नेह बरसाती हो!
कृतज्ञ हूं हे प्रकृति
तुमको तो कोई नहीं जगाता
तुम ही सबको प्रेम से जगाती हो
कैसे, कैसे करके अपना आलस्य
अपने से दूर भगाती हो!
कृतज्ञ हूं हे प्रकृति
कभी मंद पवन का बन ठंठा झौंका
कभी अपनी गर्मी में, प्रचंड गर्मी बरसाती हो
इतना गहरा प्रेम तो बस, मां की ममतामयी,ममता ही बरसाती है!
कृतज्ञ हूं हे प्रकृति
चार क़दम बढ़ाती तुम,चार क़दम पे चाल बदल लेती हो
ससमय,समय पे नित दिन, निज श्रृंगार रचाती हो
किसने तुम्हें अलार्म पे लगाया
कौन है वो जिसने तुम्हें अनुपम श्रृंगार से सजाया है !
कृतज्ञ हूं हे प्रकृति
देख रही हूं तुम्हारा रोना
आज़ दिनभर बरसी अपने दुःख पे पूरा
किसने तुम्हें ऐसे इतना सताया है
या प्रेमराग में तुम एकस्वर हो
गाती कोई गीत
भींगी चिड़िया भी तुम्हारे संग,संग गाती
रिमझिम बरसों हे सावन सुहावन
आज प्रिय की यादों में
पत्ता, पत्ता बूटा,बूटा हाल हमारा, सुनायेंगे!
कृतज्ञ हूं हे प्रकृति
प्रेम सुहावन,मनभावन
नैसर्गिक(प्राकृतिक) तुम
बसंत को सजीला बनाती हो!
कृतज्ञ हूं हे प्रकृति
सर्दी आती और तुम यूं शर्माती
किस दूल्हे ने घूंघट तुम्हें ओढ़ाया है
छुपी,छुपी दिन में भी ऐसी
जैसे प्रकृति ही बन नवयौवना कोई दुल्हन बन आई हो!
नतमस्तक हूं हे मां प्रकृति
जीवन श्रृंगार तुम लयबद्ध करती हो
क्या, क्या लिखूं मैं,चंद शब्दों में तुम्हें
कभी प्रलय की भीषणता रचती
कभी जीवन को अमरत्वता देती
धरा को स्वर्ग सरीखा कालजई कृति बनाती हो
कृतज्ञ हूं हे मां प्रकृति
तुम्हें कोटि कोटि प्रणाम,मैं करती हूं।
प्राची सिंह "मुंगेरी"