एक वर्ष और स्वतंत्रता का.. आकर चला गया.. महँगाई..भ्रष्टाचार और अनगिनत रेप के बीच, इस स्वतंत्र धरती के.. खुले आकाश में.. दम घुँट रहा है.. बस शरीर जीवित है, कोई सरकार पर आरोप लगा रहा है.. सरकार विपक्ष पर.. विपक्ष सरकार की टांग खींच रहा है.. और जनता भूखी मर रही है, जिन वस्तुओं की जरुरत नहीं है.. वो सस्
समय के प्याले में,जीवन परोसा जा रहा है,अतिथियों का जमघट लगा है,रौशनी झिलमिला रही है,अरे, बुरी किस्मत जी भी आयी है,लगता है, कुछ बिन बुलाये,अतिथि भी आये है,आये नहीं, जिनकी प्रतीक्षा है,स्वयं प्यालो को,विशेष अतिथि के रूप में,कई लोगो का निमंत्रण था,रात के दस बज चुके है,आया नहीं अभी कोई उनमे से,बाकि अतिथ
सीढियों पर किस्मत बैठी थी...ना जाने किसकी प्रतीक्षा कर रहा थी...उससे देख एक पल मैं खुश हुआ..और पास जाकर पूछा..क्या मेरी प्रतीक्षा कर रही हो...उसने बिना कुछ बोले मुहँ फेर लिया..दो तीन बार मैंने और प्रयास किया..पर वो मुझसे कुछ ना बोली...मैं समझ गया ये किसी और के लिए यहाँ बैठी है..इस बार मैंने कोशिश क
रात के बाद फिर रात हुई... ना बादल गरजे न बरसात हुई.. बंजर भूमि फिर हताश हुई.. शिकायत करती हुई आसमान को.. संवेग के साथ फिर निराश हुई.. कितनी रात बीत गयी.. पर सुबह ना हुई.. कितनी आस टूट गयी.. पर सुबह ना हुई.. ना जला चूल्हा, ना रोटी बनी.. प्यास भी थक कर चुपचाप हुई.. निराशा के धरातल पर ही थी आशा.. की एक
मैं अतिउत्साहित गंतव्य से कुछ ही दूर था, वहां पहुचने की ख़ुशी और जीत की कल्पना में मग्न था, सहस्त्र योजनाए और अनगिनत इच्छाओ की एक लम्बी सूची का निर्माण कर चुका था, सीमित गति और असीमित आकांक्षाओं के साथ निरंतर चल रहा था, इतने में समय आया किन्तु उसने गलत समय बताया, बंद हो गया अचानक सब कुछ जो कुछ समय पह
बहुत दिन हो गए दुःख को यहाँ आये,जमाना बीत गया यहाँ पैर फैलाये,सोचा आज कर ही लेते है दुःख से साक्षात्कार,पूछ लेते है क्या है इसके आगे के विचार,हमने पूछा दुःख से थोडा घबरा कर,वो भी सहम गया हमे अपने पास पाकर,आजकल काफी पहचाने जा रहे हो,महंगाई ,गरीबी, गैंगरेप आदि विषयो से चर्चा में आ रहे हो...दुःख चोंका,