स्वर्णिम यौवन का सागर-अपार टकरा रहा तन से बारंबार विपुल स्नेह से सींचित् ज्वार रसमय अह्लादित करता पुकार अन्तःस्थल में उठता हिलोर आ जा ! चित्तवन के चकोर ! सुरभित- सावन मधुमास बिता फाल्गुन का हर उत्पात फीका अंतरत्तम में हिय रिस चुका अवचेतन, मन रिक्त सब अभि लेख ा है पतझड़ कब का मचाता शोर आ जा चित्तवन के चकोर ! हिय मधुरस घोले अन्वेषण में हो अवचेतन डोले अवशोषण में रस – सिक्त ह्रदय खोले , मधुमय पोषण में अहा ! निरवता में बोले कैसा रोषण में विस्मित यौवन व्यथित हर छोर आ जा चित्तवन के चकोर ! है सुख रही अधरों की मीठास जीवन – पथ में सरस बहारों की आस सदृश स्वप्न अवलंबित सुख की तलाश मेघ आच्छादित पलकों की बुझति चिर प्यास बरसे अधरामृत , पी , बढता चल यौवन की ओर आ जा चित्तवन के चकोर ! मन चंचल चित्तवन में डोले झीना यौवन मधुरस घोले घिरा अंतस् में प्यासा बोले किससे मधुरम् प्रतिबिंब खोले ! हिय डूब रहा रस में विभोर आ जा चित्तवन के चकोर ! प्रणय निवेदन है तुमसे नव – तुषार के बिंदु बने हो यौवन – प्रवाह में सतत् – उन्मत्त ज्यों विकल – वेदना मध्य सने हो उफनाति लहरें व्यथित हर छोर आ जा चित्तवन के चकोर ! © कवि पं आलोक पान्डेय