मैं भगवत गीता से ऐसी शक्ति पाता हूं जो मुझे पर्वत पर उपदेश देने पर भी नहीं मिलती। जब निराशा मेरे सम्मुख उपस्थित होती है और नितांत एकाकी मैं प्रकाश की एक किरण भी नहीं देख पाता तब मैं भगवत गीता की और लौटता हूं। मुझे यहां अथवा वहां एक श्लोक मिल जाता है और मैं तत्काल ही अत्यधिक दुखों के बीच मुस्कुराने लगता हूं। यह शब्द है महात्मा गांधी के जो उन्होंने गीता के बारे में यंग इंडिया में
लिखेंभगवत गीता एक ऐसी रचना है जो सहस्त्रो वर्ष के बीत जाने पर भी आज भी उतनी ही सार्वभौमिक और शाश्वत है। गीता का उद्भव कुरुक्षेत्र के मैदान पर उस समय हुआ जब कौरव व पांडव सेना आमने सामने खड़ी थी और अर्जुन विरोधी पक्ष में अपने बंधुबांधव ,पितामह ,गुरुजनों व सुहदजनों को देखकर किकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और युद्ध करने की अपेक्षा युद्ध से पलायन उसे तर्कसंगत लगता है। इस दशा में विश्वेश्वर कृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया, वहीं गीता में वर्णित है। यह मात्र युद्ध का वर्णन नहीं है अपितु युद्ध के रूप को सामने रखकर रची गई वह अमृतवाणी है जो आज भी हमारे अंतर्मन को नई रोशनी दिखाती है। यह अर्जुन के माध्यम से हमारे अंतर्मन के अंदर चलने वाले, उठने वाले द्वंद्वों का उत्तर देती है। यह हमारे मन के अंदर उपस्थित सत प्रवृत्तियों व दुष्ट प्रवृत्तियों के बीच चलने वाले संग्राम में हमारे मन को किस प्रकार उन पर नियंत्रण करना है यह सिखाती है।
आज का युग वैज्ञानिक व तकनीकी युग है। संचार के अत्याधुनिक उपकरणों ,अत्याधुनिक साधनों, सुविधाओं ने मानव की जिंदगी में कभी ना खत्म होने वाली इच्छाओं की बाढ़ ला दी है। भौतिकता की दौड़ में सुख समृद्धि की चाह में आज हमारे मानवीय मूल्य, नैतिकता सब कुछ खो गया है। ना शांति है ना सुखचैन। स्वार्थपरता बढ़ी है मानव मानव से दूर हो रहा है मनुष्य अकेला है ,हताश है, निराश है। सब कुछ पा लेने पर भी उसके पास संतोष नहीं है ।अनेक मानसिक व शारीरिक व्याधियों ने उसे घेर लिया है। ऐसे में गीता का मुख्य प्रयोजन जीवन की समस्याओं को हल करके न्याययोचित आचरण की प्रेरणा देना है। गीता का मुख्य विषय कर्म योग है। कर्म योग के अनुसार कर्म करना मानव का नैसर्गिक स्वभाव है। मानव क्षण भर भी बिना कर्म के नहीं रह सकता है। गीता हमें बताती है की दो प्रकार के कर्म होते है सकाम कर्म और निष्काम कर्म। सकाम कर्म वह कर्म है जो फल की आकांक्षा की इच्छा से किए जाते हैं ।और निष्काम कर्म वह कर्म है जो फल आकांक्षा की आकांक्षा रखे बिना किए जाते हैं। गीता का दर्शन निष्काम कर्म का दर्शन है । यह आज
भी उतना ही प्रासंगिक है जितना पहले था।
(©ज्योति)