कर्म योग गीता का प्रतिपाद्य प्रमुख विषय है ,इसमें निष्काम कर्म योग अर्थ पर हम विचार करेंगे। निष्काम शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के नि:+ काम शब्द से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है परिणाम की आशा किए बिना कर्म करते रहना । अब हम कर्म शब्द के अर्थ पर विचार करेंगे, कर्म का साधारण सा अर्थ है कुछ करना। कर्म करना मानव का स्वभाव है, वह क्षण भर भी बिना कर्म के नहीं रह सकता है। कर्म शब्द को ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ के रूप में कहा गया है । ईश्वरोपासना के लिए भी कर्म शब्द प्रयुक्त हुआ है। पर गीता में कर्म शब्द इन सभी अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। कर्म दो प्रकार के होते हैं सकाम कर्म और निष्काम कर्म। सकाम कर्म फल की आशा को ध्यान में रखकर किए जाते हैं। और निष्काम कर्म फल के परिणाम की चिंता
किए बिना।
अब हम योग शब्द के अर्थ विचार करेंगे जिसका शाब्दिक अर्थ है जोड़ना या लगाना। प्राचीन संस्कृत शब्द योग की परिभाषा "चित्तवृत्ति निरोध "कहकर की गई है। इसका अर्थ है कि योग वह विज्ञान है जो हमें चित्त को परिवर्तनशील अवस्था से हटाकर उसे वश में करने की शिक्षा देता है ।इस प्रकार कर्म योग का अर्थ हुआ निष्ठापूर्वक अपने सामाजिक कर्तव्यों का पालन करना ।यह संपूर्ण लोक कर्म से बंधा है और मनुष्य प्रकृति के सत ,रज ,तम गुणों के अधीन होकर कर्म करने के लिए बाध्य है ।गीता कर्म प्रवृत्ति की नैसर्गिकता पर बल देती है।
गीता का कर्म योग निष्काम कर्म योग है। निष्काम कर्म योग का अर्थ है हम कर्म को सदैव साध्य के रूप में देखे उसे कभी भी साधन के रूप में ग्रहण ना करें ।हम कर्म तो करें लेकिन फल में आसक्ति ना रखें ।गीता के अनुसार जो कर्म फलाकांक्षा की भावना से किए जाते हैं वे बंधनकारी होते हैं ,और उन कर्मों को करने से आसक्ति पैदा होती है ।फिर आसक्ति से आकांक्षा जन्म लेती है ।आकांक्षा से क्रोध, क्रोध से मोह उत्पन्न होता है ।मोह से स्मृति नष्ट होती है । स्मृति नाश से बुद्धि नष्ट होती है ,और बुद्धि नष्ट होने से सब कुछ नष्ट हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सकाम कर्म हमे बंधन से बांधते हैं। हमें राग ,द्वेष ,मोह ,माया जैसी आसक्तियों में जकड़ कर हमारे मन का अध: पतन करते हैं ।जबकि जो कर्म कामना रहित होकर फलाकांक्षा की भावना का परित्याग करके किए जाते हैं ,वे मोक्ष दायक होते हैं। निष्काम कर्म में अहम की भावना नहीं होती ।निष्काम कर्म कर्म योगी स्वयं को कर्मों का करता मानता है परंतु फल की प्राप्ति होने पर उस पर अपना अधिकार नहीं समझता है, वह फल को ईश्वरीय कृपा मानता है ।अतः निष्काम कर्म में कर्तव्य की चेतना तथा फल प्राप्ति की अचेतना निहित होती है ।गीता के अनुसार आत्म लाभ एवं लोक संग्रह के लिए किए गए कार्य सकाम नहीं होते ।इन दोनों लक्ष्यों की पूर्ति के लिए किये गयेऔर ईश्वर को समर्पित कर्म
वैसे ही बंधनकारी नहीं होते जैसे कीचड़ में उत्पन्न कमल कीचड़ से प्रभावित नहीं होता। गीता के अनुसार ऐसे सभी कर्मों का त्याग जो फल आकांक्षा से किए जाते हैं सन्यास है तथा कर्मों के फलों का परित्याग त्याग हैं।
कर्म त्याग और कर्मयोग दोनों श्रेष्ठ हैं ,पर कर्मयोग कर्म सन्यास से श्रेष्ठ है। तभी तो श्री कृष्णा अर्जुन से कह उठे! हे अर्जुन! तुम्हारा अधिकार केबल कर्म में है उसके फल में कदापि नहीं,। तू कर्मफल का हेतू भी ना बनो और अकर्म मैं तुम्हारी आसक्ति भी ना हो । अकर्म बुरा है ,व्यक्ति का अधिकार केवल कर्म करने में है अतः तू कर्म कर ,फल की चिंता ना कर। गीता के अनुसार कर्मों में कुशलता ही योग है ।समत्वभाव ही योग है। समत्व भाव का अर्थ है समान दृष्टि। लाभ ,हानि, जय ,पराजय ,शत्रु मित्र अर्थात जो सभी प्राणियों में समान आत्मा के दर्शन करता है ,और समान दृष्टि से देखता है, वही समत्वभाव को धारण कर सकता है। जो मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है। वह सब प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त रहकर भी दिव्य स्थिति में रहता है। हमारे आध्यात्मिक स्वरूप की उन्नति का लक्ष्य है उसे निष्काम बनाए रखता है। अतः गीता मानव को कर्म करने व उसके फल को ईश्वर पर समर्पित करने की बात कह मनुष्य को दिव्य जीवन जीने की प्रेरणा देती है ।