गीता में स्वधर्म के महत्व को स्वीकार कर इसे प्रतिपादित किया गया है। गीता में श्री कृष्ण जी ने कहा है की चार वर्णों ब्राह्मण क्षत्रिय ,वैश्य ,शूद्र की रचना गुण एवं कर्म के आधार पर मेरे द्वारा की गई है। इन चार वर्णो की व्यवस्था जन्मजात ना होकर गुण एवं कर्मों के आधार पर है। सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न तीन गुणों सत्त्व ,रज एवं तमोगुण से बंधे हुए हैं। सत्व गुण की प्रधानता वाले ब्राह्मण, सत्त्व व रजोगुण के संयोग की अधिकता वाले क्षत्रिय वर्ण, तथा तमोगुण व रजोगुण की प्रधानता वाले वैश्य वर्ण है। रजोगुण मिश्रित तमोगुण की अधिकता वाले शूद्र कहलाए। प्रत्येक वर्ण के कर्म अलग-अलग है तथा इसका आधार स्वभाव जन्य गुण है। गीता ने अपने अपने वर्णों के संभावित कर्मों को ही स्वधर्म की संज्ञा दी है। स्वभाव तथा गुण के अनुरूप निर्धारित विशिष्ट कर्म ही स्वधर्म है। प्रत्येक वर्ण का अपना निश्चित कर्म स्वधर्म है ,जिसे कर्तव्य समझकर संपादित किया जाना चाहिए। किसी भी दृष्टिकोण से अपने निर्धारित कर्म का परित्याग एवं अन्य के धर्म एवं कर्म का संपादन उचित नहीं है। स्वधर्म की यह विशेषता है कि यह कर्मों की समानता को स्वीकार करता है जिसके अनुसार सभी व्यक्तियों के कर्म समान है। यह सामाजिक व्यवस्था और संरचना को अक्षुण्ण बनाए रखने में सहायता करता है व व्यक्ति व समाज के बीच सेतु की तरह संबंध बनाए रखता है। स्वधर्म के पालन से ही समाज में शांति की स्थापना व सौहार्द का वातावरण बनता है तथा प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वधर्म का पालन करते हुए अपना चारित्रिक , वैयक्तिक, सामाजिक विकास करता है। स्वधर्म के पालन से व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास होता है ,अहम समाप्त हो जाता है तथा यह भावना गीता के निष्काम कर्म को अक्षुण्ण बनाए रखती है।
आधुनिक युग में गुण एवं कर्म के आधार पर किया गया यह विभाजन जन्मजात बन गया। ब्राह्मण क्षत्रिय श्रेष्ठ व वैश्य शूद्र हीन बन गये व उनका शोषण होने लगा। आज भी हमारा समाज इन अंधविश्वासों, कुरीतियों ,ऊंच-नीच की भावनाओं से भरा पड़ा है ।मनोविज्ञान कहता है हर व्यक्ति का व्यक्तित्व अलग है ,उसके गुण ,कर्म ,स्वभाव के आधार पर शिक्षा देनी चाहिए ।लेकिन मनुष्य के अहम ने किसी को जन्म से श्रेष्ठ बना दिया किसी को हीन? यह ईश्वर की बनाई व्यवस्था का अपमान है, उसने सभी को समान बनाया है। हर व्यक्ति के कार्य का चाहे छोटा हो या बड़ा अपना महत्व है ।यह भेदभाव जो हमारे मन के अंदर बसता है, यह श्रेष्ठता की दीवारें, यह अमीरी का दंभ सब समाप्त हो जाएगा जब हम निष्काम भाव से अपने कर्म को स्वधर्म मानकर निष्ठा पूर्वक अपने काम करेंगे। फिर समाज में एकता व समरसता का वातावरण होगा। ना श्रेष्ठता व हीनता की लड़ाई होगी। ना कोई किसी का शोषण करेगा ना ही कोई शोषित होगा। (© ज्योति)