निष्काम कर्म योग में प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के दो परस्पर विरोधी आदर्शों का समन्वय होता है। प्रवृत्ति का आदर्श कर्म का आदर्श है इस से प्रेरित व्यक्ति समाज में रहते हुए सुख प्राप्ति के लिए कर्म करते हैं। इसमें निहित स्वार्थ व्यक्ति को जीवन के सच्चे आदर्शों तक पहुंचने से रोकता है। निवृत्ति का आदर्श वैराग्य का दर्शन है।जो सभी कर्मों के परित्याग एवं सांसारिक संबंधों से विमुख होने का समर्थक है। यह तपस्यामय जीवन और त्याग के निषेधात्मक आदर्श का समर्थक है ।इनमें से प्रथम कर्मफल में आसक्ति सिखाता है और दूसरा अकर्म की और पर पवृत्त करता है। गीता कर्म फल में आसक्ति को उतना ही बुरा मानती है जितना अकर्म को। दोनों ही अतिवादी है। गीता दोनों की बुराइयों को दूर करके दोनों की अच्छाइयों को सुरक्षित रखते हुए दोनों का स्वर्णिम समन्वय करती है। दोनों का समन्वय निष्काम कर्म योग में है इसमें कर्म का त्याग भी नहीं होता और त्याग का आदर्श भी सुरक्षित रहता है यह त्यागमय जीवन का समर्थन करते हुए स्वार्थपरक प्रवृत्तियों का बहिष्कार करता है। इस प्रकार यह प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों को ऊंचा उठा देता है। निष्काम कर्म योग में कर्म करने का आदेश प्रवृत्ति का आदर्श है। और कर्मफल में अनासक्ति निवृत्ति का आदर्श हैं। तात्पर्य यह है कि गीता ने प्रवृति में निवृत्ति और निवृत्ति में प्रवृत्ति का समावेश करके दोनों में समन्वय किया जो निष्काम कर्म योग का साधन है।
अतः जरूरी है है कि हम कर्म तो करें लेकिन फल को ईश्वर पर छोड़ दें। अगर प्रत्येक व्यक्ति कर्म को निष्काम भाव से करेगा तो तनाव ,परेशानियों से दूर हो जाएगा। उसके कर्म ईश्वरीय उन्मुख होंगे। स्वार्थमय कर्म ही हमारे जीवन को बांधते हैं और हमें इस संसार के माया ,मोह में भटकाते है।
यह किताब गीता दर्शन पर आधारित है। आज के युग में गीता दर्शन की प्रासंगिकता एक ऐसा विषय है जो हमें सोचने पर मजबूर करता है की गीता केबल महाभारत के युद्ध क्षेत्र का वर्णन नहीं है,
अर्जुन और कृष्ण के मध्य संवाद नहीं है बल्कि युद्ध क्षेत्र में अर्जुन के मन में जो भी प्रश्न उठ रहे हैं उनका उत्तर है। यह हमारे मन क्षेत्र मे उठने वाले विचारों द्वंद्वों का समाधान है। यह वह अमृतवाणी है, जिसे सुनने से, जिसे पढ़ने से मनुष्य को शांति, उत्साह, ऊर्जा मिलती है।