सोच-समझ कर रहना भैया आखिर क्यों उलझना है।
जीवन है क्षण भंगुर फिर शाश्वत किसे यहाँ रहना है।।
विस्तार वादी नीति पर जगत तनय को कुछ कहना है।
पंच तत्वों की काया को उन्हीं पंच तत्वों में मिलना है।।1।
काया कंचन मिट्टी को आखिर क्यों इतना मान दिया।
पग-पग पर निज हित रह आखिर क्यों तू जान दिया।।
जनमेजय के नाग यज्ञ ने किसका है कल्याण किया।
शान्ति न माना जिसने उसने मानव को तबाह किया।।2।।
आखिर क्यों दिन-रात सूर्य-चन्द्र निज पथ सजे रहें।
दे उपहार हमें सुख-शांति का कर्तव्य पथ पर बने रहें।।
नाकों चना चबाने शांति बनाने कर्म पथ पर अड़े रहें।
अपनी संवेदना को जगा हम शांति हेतु तो खड़े रहें।।3।।
आखिर क्यों हर काल काल शिर पर मंडराता है।
श्वाशों का आना-जाना जीवन राह चलना बताता है।।
जीवन हैं तो जीना ही पड़ेगा जीवन राग सुनाता है।
नित कर्म करो आगे बढ़ो अद्भुत मन्त्र सिखाता है।।4।।
आखिर क्यों मानव मानव ही नहीं रह पाता है।
मद मोह मत्सर मार मानव मन मही मर जाता है।।
सुबह से शाम तक एक सा नित काम पड़ जाता है।
अपनों से परायों सा परायों से अपने सा हो जाता है।।5।।
आखिर क्यों कामना हीन भूत भूत बन जाता है।
जन्म कर्म के बन्धन से जन मुक्त नहीं हो पाता है।।
पी कर विष-वारूणी कदम नहीं भू पर रख पाता है।
सत्ता मद में चूर नर मानवता ताक पर रख देता है।।6।।
आखिर क्यों सब पाठ नर दूसरों को ही पढ़ाता है।
निज पर बात आते ही सब पाठ स्वयं भूल जाता है।।
प्राणी प्रकृति प्रकृति संग भी खेल खेल जाती है।
दया माया ममता मधुरिमा मन मसोज रह जाती है।।7।।
आखिर क्यों हर जीव-जन्तु हमकों ज्ञान सिखाते हैं।
तोता-मैना कागला हंस बगुले कुत्ते पाठ पढ़ाते हैं।।
औरों की तो बात क्या बैल-गधे सिख दे जाते हैं।
कारण सच कहूँ जब मानव मानव नहीं हो पाते हैं।।8।।