अब विदा लेता हूँ
मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूँ
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं
उस कविता में
महकते हुए धनिए का ज़िक्र होना था
ईख की सरसराहट का ज़िक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का ज़िक्र होना था
और जो भी कुछ
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सब कुछ का ज़िक्र होना था
उस कविता में मेरे हाथों की सख़्ती को मुस्कुराना था
मेरी जाँघों की मछलियों को तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और ज़िन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त
लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे हुए नक़्शे से निपटना
और यदि मैं लिख भी लेता
शगुनों से भरी वह कविता
तो वह वैसे ही दम तोड़ देती
तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है
जबकि हथियारों के नाख़ून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के ख़िलाफ़ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है
युद्ध में
हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह
और इस स्थिति में
मेरी तरफ चुम्बन के लिए बढ़े होंठों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा देना
या तेरी कमर के लहरने की
समुद्र की साँस लेने से तुलना करना
बड़ा मज़ाक-सा लगता था
सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुम्हें
मेरे आँगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख़्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को
एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ
और अब मैं विदा लेता हूँ
मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले
अपने गाँव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है
हाँ, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही अच्छा लगता है
मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूँ
उन सभी हसीन चीज़ों का
जो हमारे मिलन पर तम्बू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जो हमारे मिलने से हसीन हो गई
मैं शुक्रिया करता हूँ
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का
जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इन्तज़ार में
रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का
जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था
टींडों से उतरी कपास का
जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया
और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई
गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का
जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी
जवान हुए गेहूँ की बालियों का
जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही
मैं शुक्रगुजार हूँ, सरसों के नन्हें फूलों का
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग-केसर झाड़ने का
मैं आदमी हूँ, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूँ
और उन सभी चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा
मेरे पास आभार है
मैं शुक्रिया करना चाहता हूँ
प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि ज़ुल्म को झेलते हुए ख़ुद को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से
किसी गुफ़ा में पड़े रहकर
ज़ख़्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे
प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गूँज जाना -
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा
जिन्हें ज़िन्दगी ने बनिया बना दिया
जिस्म का रिश्ता समझ सकना,
ख़ुशी और नफ़रत में कभी भी लकीर न खींचना,
ज़िन्दगी के फैले हुए आकार पर फ़िदा होना,
सहम को चीरकर मिलना और विदा होना,
बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,
मैं अब विदा लेता हूँ
तू भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया
कि मेरी नज़रों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक़्शों की धार बाँधने में
कि मेरे चुम्बनों ने
कितना ख़ूबसूरत कर दिया तेरा चेहरा कि मेरे आलिंगनों ने
तेरा मोम जैसा बदन कैसे साँचे में ढाला
तू यह सभी भूल जाना मेरी दोस्त
सिवा इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी
कि मैं गले तक ज़िन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे भी हिस्से का जी लेना
मेरी दोस्त मेरे भी हिस्से का जी लेना ।
Avtar Singh Sandhu 'Pash' की अन्य किताबें
अन्य साहित्य और कथा की किताबें
नौ सितंबर 1950 को जन्मे पाश का मूल नाम अवतार सिंह संधु था। उन्होंने महज 15 साल की उम्र से ही कविता लिखनी शुरू कर दी और उनकी कविताओं का पहला प्रकाशन 1967 में हुआ। उन्होंने सिआड, हेम ज्योति और हस्तलिखित हाक पत्रिका का संपादन किया। पाश 1985 में अमेरिका चले गए। उन्होंने वहां एंटी 47 पत्रिका का संपादन किया। पाश ने इस पत्रिका के जरिए खालिस्तानी आंदोलन के खिलाफ सशक्त प्रचार अभियान छेडा। पाश कविता के शुरुआती दौर से ही भाकपा से जुड गए। उनकी नक्सलवादी राजनीति से भी सहानुभूति थी। पंजाबी में उनके चार कविता संग्रह.. लौह कथा, उड्डदे बाजां मगर, साडे समियां विच और लडांगे साथी प्रकाशित हुए हैं। हिन्दी में इनके काव्य संग्रह बीच का रास्ता नहीं होता और समय ओ भाई समय के नाम से अनूदित हुए हैं। पंजाबी के इस महान कवि की महज 39 साल की उम्र में 23 मार्च 1988 को उनके ही गांव में खालिस्तानी आतंकवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। पाश धार्मिक संकीर्णता के कट्टर विरोधी थे। धर्म आधारित आतंकवाद के खतरों को उन्होंने अपनी एक कविता में बेहद धारदार शब्दों में लिखा है- मेरा एक ही बेटा है धर्मगुरु वैसे अगर सात भी होते वे तुम्हारा कुछ नहीं कर सकते थे तेरे बारूद में ईश्वरीय सुगंध है तेरा बारूद रातों को रौनक बांटता है तेरा बारूद रास्ता भटकों को दिशा देता है मैं तुम्हारी आस्तिक गोलियों को अर्ध्य दिया करूंगा..।
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जिन्हें अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी दी थी और इसके 57 साल बाद पंजाब के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह ‘पाश’ आतंकवादियों की गोलियों का निशाना बने. यह संयोग हो सकता है कि भगत सिंह के शहीदी दिवस अर्थात 23 मार्च को ही पंजाब में पैदा हुए अवतार सिहं ‘पाश’ भी शहीद होते हैं लेकिन इनके उद्देश्य व विचारों की एकता संयोग नहीं है. यह वास्तव में भारतीय जनता की सच्ची आजादी के संघर्ष की परंपरा का सबसे बेहतरीन विकास है. यह शहादत राजनीति और संस्कृति की एकता का सबसे अनूठा उदाहरण है.
जो लोग भगत सिंह और उनके साथियों के विचारों से थोड़ा भी परिचित हैं, वे जानते हैं कि उन्होंने एक ऐसे भारतीय समाज का सपना देखा था जो दमन, अत्याचार, शोषण व अन्याय जैसे मानव विरोधी मूल्यों से सर्वथा मुक्त हो तथा जहां सत्ता मजदूरों-किसानों के हाथों में हो. भगत सिंह के विचारों की रोशनी में देखें तो 15 अगस्त 1947 की आजादी की लड़ाई को जारी रखने तथा पूरी करने के लिए वे वैचारिक आवेग प्रदान करते हैं. भगत सिंह ने बार-बार स्पष्ट किया था कि आजादी से उनका मतलब ब्रिटिश सत्ता की जगह देशी सामन्तों व पूंजीपतियों की सत्ता नहीं, बल्कि शोषण-उत्पीड़न से करोड़ों-करोड़ मेहनतकशों की आजादी तथा मेहनतकश जनता के हाथों में वास्तविक सत्ता होना है. भगत सिंह ने ‘समाजवाद की बुनियाद पर समाज निर्माण करने’ तथा ‘मनुष्य के हाथों मनुष्य का कौमों के हाथों कौमों का शोषण समाप्त करने’ के लिए क्रांति का आह्वान किया था. लेकिन अफसोस कि भगत सिंह और उनके साथियों ने आजादी का जो सपना देखा था, जिस संघर्ष और क्रांति का आह्वान किया था, वह अधूरा ही रहा.
भारतीय जनता के गौरवशाली संघर्ष और विश्व पूंजीवाद के आंतरिक संकट के परिणामस्वरूप जो राजनीतिक आजादी 1947 में मिली, उसका लाभ केवल पूंजीपतियों, सामंतों और उनसे जुड़े मुट्ठीभर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों ने ही उठाया है. आज हालत और भी बदतर है. कल जो राजनीति त्याग व सेवा का कार्य था, आज मुनाफे का धंधा है. देश नई गुलामी के जाल में फंस चुका है. हम देखते हैं कि सातवां दशक आते-आते आजादी से मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. भारत के शासक वर्ग के खिलाफ जन असंतोष तेज होता है जिसकी अभिव्यक्ति राजनीति में ही नहीं, संस्कृति व साहित्य में भी होती है. इस दौर में पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में नये पीढ़ी के कवियों ने पंजाबी कविता को नया रंग-रूप प्रदान किया. अवतार सिंह पाश इन्हीं की अगली पांत में थे.
उनकी पहली कविता 1967 में छपी थी. अमरजीत चंदन के संपादन में भूमिगत पत्रिका ‘दस्तावेज’ के चौथे अंक में परिचय सहित पाश की कविताओं का प्रकाशन पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में धमाके की तरह था. उन दिनों पंजाब में क्रांतिकारी संघर्ष अपने उभार पर था. पाश का गांव तथा इलाका इस संघर्ष के केन्द्र में था. उन्होंने इसी संघर्ष की जमीन पर कविताएं रचीं और इसके ‘जुर्म’ में गिरफ्तार हुए. करीब दो वर्षों तक जेल में रहकर सत्ता के दमन का मुकाबला करते हुए उन्होंने ढेरों कविताएं लिखीं. वहीं रहते उनका पहला कविता संग्रह ‘लोककथा’ प्रकाशित हुआ जिसने पंजाबी कविता में उनकी पहचान दर्ज करा दी.
1972 में जेल से रिहा होने के बाद पाश ने ‘सिआड’ नाम की साहित्यिक पत्रिका निकालनी शुरू की. पंजाब में क्रांतिकारी आंदोलन बिखरने लगा था. साहित्य के क्षेत्र में भी पस्ती व हताशा का दौर शुरू हो गया था. ऐसे में पाश ने आत्मसंघर्ष करते हुए सरकारी दमन के खिलाफ व जन आंदोलनों के पक्ष में रचनाएं की. पंजाब के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को एकजुट व संगठित करने के प्रयास में पाश ने ‘पंजाबी साहित्य-सभ्याचार मंच’ का गठन किया तथा अमरजीत चंदन, हरभजन हलवारही आदि के साथ मिलकर ‘हेमज्योति’ पत्रिका निकाली. इस दौर की पाश की कविताओं में भावनात्मक आवेग की जगह विचार व कला की ज्यादा गहराई थी. चर्चित कविता ‘युद्ध और शांति’ उन्होंने इसी दौर में लिखी. 1974 में उनका दूसरा कविता संग्रह ‘उडडदे बाजा मगर’ छपा और तीसरा संग्रह ‘साडे समियां विच’ 1978 में प्रकाशित हुआ.
उनकी मृत्यु के बाद ‘लड़ेगें साथी’ शीषर्क से चौथा संग्रह आया जिसमें प्रकाशित व अप्रकाशित कविताएं संकलित हैं. पाश की कविताओं का मूल स्वर राजनीतिक-सामाजिक बदलाव अर्थात क्रांति और विद्रोह का है. उनमें एक तरफ सांमती-उत्पीड़कों के प्रति जबर्दस्त गुस्सा व नफरत का भाव है, वहीं अपने जन के प्रति अथाह प्यार है. नाजिम हिकमत और ब्रेख्त की तरह इनकी कविताओं में राजनीति व विचार की स्पष्टता व तीखापन है. कविता राजनीतिक नारा नहीं होती लेकिन राजनीतिक नारे कला व कविता में घुल-मिलकर उसे नया अर्थ प्रदान करते हैं तथा कविता के प्रभाव और पहुंच को आश्चर्यजनक रूप में बढ़ाते हैं. यह बात पाश की कविताओं में देखी जा सकती है. पाश ने कविता को नारा बनाये बिना अपने दौर के तमाम नारों को कविता में बदल दिया.
पाश की नजर में एक तरफ ‘शब्द जो राजाओं की घाटियों में नाचते हैं, जो प्रेमिका की नाभि का क्षेत्रफल मापते हैं, जो मेजों पर टेनिस बॉल की तरह दौड़ते हैं और जो मैचों की ऊसर जमीन पर उगते हैं, कविता नहीं होते.’ तो दूसरी तरफ ‘युद्ध हमारे बच्चों के लिए कपड़े की गेंद बनकर आएगा/युद्ध हमारी बहनों के लिए कढाई के सुन्दर नमूने लायेगा/युद्ध हमारी बीवियों के स्तनों में दूध बनकर उतरेगा/युद्ध बूढी मां के लिए नजर का चश्मा बनेगा/युद्ध हमारे पुरखों की कब्रों पर फूल बनकर खिलेगा.’ और ‘तुम्हारे इंकलाब में शामिल हैं संगीत और साहस के शब्द/ खेतों से खदानों तक युवा कंधों और बलिष्ठ भुजाओं से रचे हुए शब्द... बर्बर सन्नाटों को चीरते हजार कंठों से निकली आवाज ही पाश की कविता में शब्दबद्ध होती है. पाश की कविताओं में इन्हीं कंठों की ऊष्मा है.
1985 में पाश ने अमेरिका से ‘एंटी-47’ पत्रिका के जरिये खालिस्तान का खुला विरोध किया. मार्च 1988 में वह छुट्टियां बिताने गांव आये थे और 23 मार्च को आतंकवादियों ने नहाते समय उनकी हत्या कर दी. सरकारी जेलें हों या आंतकवादियों की बन्दूकें, पाश ने झुकना नहीं स्वीकारा.
दलित-पीड़ित शोषित कंठों से निकली आवाज को कविता में पिरोते हुए अंतत: वह अपने प्रिय शहीद भगत सिंह की राह चलते हुए शहीद हो गये. भले ही इनकी शहादत के बीच 57 वर्षों का अंतर है परन्तु दोनों राजनीति और संस्कृति की दुनिया को बहुत गहरे प्रभावित करते हैं.D