क्या-क्या नहीं है मेरे पास शाम की रिमझिम नूर में चमकती ज़िन्दगी लेकिन मैं हूँ घिरा हुआ अपनों से क्या झपट लेगा कोई मुझ से रात में क्या किसी अनजान में अन्धकार में क़ैद कर देंगे मसल देंगे क्य
यदि देश की सुरक्षा यही होती है कि बिना जमीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाए आँख की पुतली में हाँ के सिवाय कोई भी शब्द अश्लील हो और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे तो हमें देश की सुरक्षा स
हमारे लहू को आदत है मौसम नहीं देखता, महफ़िल नहीं देखता ज़िन्दगी के जश्न शुरू कर लेता है सूली के गीत छेड़ लेता है शब्द हैं की पत्थरों पर बह-बहकर घिस जाते हैं लहू है की तब भी गाता है ज़रा सोचें
बरसों तड़पकर तुम्हारे लिए मैं भूल गया हूँ कब से, अपनी आवाज़ की पहचान भाषा जो मैंने सीखी थी, मनुष्य जैसा लगने के लिए मैं उसके सारे अक्षर जोड़कर भी मुश्किल से तुम्हारा नाम ही बन सका मेरे लिए वर्ण अ
तुम्हारे बग़ैर मैं बहुत खचाखच रहता हूँ यह दुनिया सारी धक्कम-पेल सहित बेघर पाश की दहलीजें लाँघ कर आती-जाती है तुम्हारे बग़ैर मैं पूरे का पूरा तूफ़ान होता हूँ ज्वार-भाटा और भूकम्प होता हूँ तुम्हारे
जिन्होंने उम्र भर तलवार का गीत गाया है उनके शब्द लहू के होते हैं लहू लोहे का होता है जो मौत के किनारे जीते हैं उनकी मौत से ज़िन्दगी का सफ़र शुरू होता है जिनका लहू और पसीना मिटटी में गिर जाता है
तुम्हारे रुक-रुक कर जाते पाँवों की सौगन्ध बापू तुम्हें खाने को आते रातों के जाड़ों का हिसाब मैं लेकर दूँगा तुम मेरी फ़ीस की चिंता न करना मैं अब कौटिल्य से शास्त्र लिखने के लिए विद्यालय नहीं जाया
मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से क्या वक़्त इसी का नाम है कि घटनाएँ कुचलती हुई चली जाएँ मस्त हाथी की तरह एक समूचे मनुष्य की चेतना को ? कि हर सवाल केवल परिश्रम करते देह की ग़लती ही हो क
आधी रात में मेरी कँपकँपी सात रजाइयों में भी न रुकी सतलुज मेरे बिस्तर पर उतर आया सातों रजाइयाँ गीली बुखार एक सौ छह, एक सौ सात हर साँस पसीना-पसीना युग को पलटने में लगे लोग बुख़ार से नहीं मरते मृ
अब विदा लेता हूँ मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूँ मैंने एक कविता लिखनी चाही थी सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं उस कविता में महकते हुए धनिए का ज़िक्र होना था ईख की सरसराहट का ज़िक्र होना था उस
मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से क्या वक़्त इसी का नाम है कि घटनाएँ कुचलती चली जाएँ मस्त हाथी की तरह एक पूरे मनुष्य की चेतना ? कि हर प्रश्न काम में लगे ज़िस्म की ग़लती ही हो ? क्यूँ
हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर यह काम हमारा नह
उसकी शहादत के बाद बाक़ी लोग किसी दृश्य की तरह बचे ताज़ा मुंदी पलकें देश में सिमटती जा रही झाँकी की देश सारा बच रहा बाक़ी उसके चले जाने के बाद उसकी शहादत के बाद अपने भीतर खुलती खिडकी में लोगो
हर किसी को नहीं आते बेजान बारूद के कणों में सोई आग के सपने नहीं आते बदी के लिए उठी हुई हथेली को पसीने नहीं आते शेल्फ़ों में पड़े इतिहास के ग्रंथो को सपने नहीं आते सपनों के लिए लाज़मी है झेलनेव
मैं घास हूँ मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर बना दो होस्टल को मलबे का ढेर सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर मेरा क्या करोगे मैं तो घास हूँ हर चीज़ प
क्या-क्या नहीं है मेरे पास शाम की रिमझिम नूर में चमकती ज़िंदगी लेकिन मैं हूं घिरा हुआ अपनों से क्या झपट लेगा कोई मुझ से रात में क्या किसी अनजान में अंधकार में क़ैद कर देंगे मसल देंगे क्या जीव
अवतार सिंगह संधू पाश ने अपनी कविता सबसे खतरनाक में फासीवाद का बढ़ना तथा आम जन का उसपे कोई प्रतिक्रिया न करने पर अपने काव्य के माध्यम से लोगों को क्रांति लाने के लिए प्रेरित किया है। हमारे समाज में बहुत
भगत सिंह ने पहली बार पंजाब को जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से बुद्धिवाद की ओर मोड़ा था जिस दिन फाँसी दी गई उनकी कोठरी में लेनिन की किताब मिली जिसका एक पन्ना मुड़ा हुआ था पंजाब की जवानी को उसके आख
हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते जिस तरह हमारे बाजुओं में मछलियाँ हैं, जिस तरह बैलों की पीठ पर उभरे सोटियों के निशान हैं, जिस तरह कर्ज़ के काग़ज़ों में हमारा सहमा और सिकुड़ा भविष्य है हम ज़िन्दग
संविधान यह पुस्तक मर चुकी है इसे मत पढ़ो इसके लफ़्ज़ों में मौत की ठण्डक है और एक-एक पन्ना ज़िन्दगी के अन्तिम पल जैसा भयानक यह पुस्तक जब बनी थी तो मैं एक पशु था सोया हुआ पशु और जब मैं जागा