भारतीय विचारकों की उन्नीसवीं सदी की पीढ़ी में मूर्धन्य राजाराम मोहन राय,स्वामी विवेकानंद,स्वामी दयानंद,श्री अरविंद और महात्मा गाँधी के विचार में भारत को आधुनिक भी बनना है और अपनी परंपरा के श्रेष्ठ अंश को भी बचाकर रखना है.जिस रूप में हम आधुनिकता का वरण करेंगे उसी से यह निश्चित होगा कि भारत मौलिक राष्ट्र बनकर खड़ा होगा अथवा वह पश्चिम की डुप्लीकेट कॉपी बन जायेगा.
नैतिकता,सौन्दर्य-बोध और अध्यात्म के समान आधुनिकता कोई शाश्वत मूल्य नहीं है बल्कि वह केवल समय सापेक्ष धर्म है.संसार का कोई भी समाज किसी भी समय इतना स्वाभाविक नहीं रहा है कि वह हर आदमी को पसंद हो.वैदिक युग भारत का प्रायः सर्वाधिक स्वाभाविक काल था.यही कारण है कि आज तक भारत का मन उस काल की ओर बार-बार मुड़कर देखता है.वैदिक आर्य अपने युग को स्वर्ण काल कहते थे या नहीं,यह हम नहीं जानते परन्तु उनका समय हमें स्वर्ण काल के समान अवश्य दिखाई देता है.
लेकिन जब बौद्ध युग के आरम्भ होते ही वैदिक समाज की पोल खुलने लगी और चिंतकों के बीच उनकी आलोचना आरम्भ हो गई.बौद्ध युग अनेक दृष्टियों से आज के आधुनिकता आन्दोलन के समान था.ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरूद्ध बुद्ध ने विद्रोह का प्रचार किया था.जाति-प्रथा के बुद्ध विरोधी थे और मनुष्य को वे जन्मना नहीं, कर्मना श्रेष्ठ या अधम समझते थे.नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार देकर उन्हौने नारियों को भी मोक्ष की अधिकारिणी बताया.बुद्ध के समय से बराबर इस देश में ऐसे लोग उत्पन्न होते रहे हैं.यदि आज की आधुनिकता के प्रसंग में देखें,तो बुद्ध के युद्ध-विरोधी विचार भी आधुनिक थे,किन्तु बुद्ध में आधुनिकता से बेमेल बात यह थी कि वे निवृति वादी थे.गृहस्थी के कर्म से भिक्षु-धर्म को श्रेष्ठ समझते थे.उनकी प्रेरणा से देश के हजारों-लाखों युवक सन्यासी हो गये.किन्तु विवेकानंद अधिक आधुनिक निकले क्योंकि अपने सन्यासियों को उन्हौने समाजसेवी बना दिया.विवेकानंद के सन्यासी अपनी गृहस्थी छोड़कर सबकी गृहस्थी में सहायता करते हैं.बुद्ध के आविर्भाव के बाद इस देश में संस्कृति की दो धाराएं बहने लगी है.पहली,संस्कृति की वह धारा है जो वर्णाश्रम धर्म का समर्थन करती है,जाति-प्रथा को कायम रखना चाहती है और अन्य धर्मों व संस्कृतियों के प्रभाव से बचकर जीना चाहती है. दूसरी, बुद्ध के कमंडल से निकली वृहत मानवता की धारा है जो वर्णाश्रम धर्म के विरूद्ध है, जात-पांत को नहीं मानती व छुआछूत को वह अधर्म समझती है.बुद्ध ने जिन बातों के खिलाफ़ विद्रोह किया था,लगता है,हमें भी उनके विरूद्ध आवाज उठानी चाहिये, क्योंकि वैदिक धर्म की जो बातें बुद्ध को नापसंद थीं, वे धर्म के तत्व नहीं, उसके ऊपर जमी हुई रूढयों की पपड़ियाँ है और उन्हें तोड़कर झाड़े बिना भारत-धर्म नवीन नहीं होगा,अर्थात् अपने असली स्वरुप पर नहीं पहुंचेगा.
यूरोपीय संपर्क ने हिंद्त्व को हिलकोर कर मनु और बुद्ध वाली दोनों धाराओं को मिलाकर उसके शाश्वत,चिर नवीन व जाग्रत रूप में ला दिया है जिसका उपदेश आज के ऋषि परमहंस रामकृष्ण, विवेकानंद,श्री अरविंद और महर्षि रमण ने किया है.महात्मा गांधी व स्वामी दयानंद ने किया है.समाज के अग्रणी लोग इस अभिनव हिंदुत्व पर आ गये हैं.जिनका अनुगमन सारा समाज आज नहीं तो कल करेंगे.किन्तु क्या अपने सामाजिक आधार बदल देने से भारत आधुनिक हो जाएगा?
जिसे हम आधुनिकता कहते हैं,वह कई बातों का एक समिलित नाम है.औद्योगीकरण आधुनिकता की पहचान है.साक्षरता का सर्वव्यापी प्रचार,नगर-सभ्यता का प्राधान्य आधुनिकता का गुण है.लेकिन ये आधुनिकता के बाहरी लक्षण हैं.यूरोप और अमरीका में फ़ैली आधुनिकता का मौलिक गुण वै ज्ञान िक दृष्टिकोण की प्राथमिकता और प्राबल्य है,जो निष्ठुर होकर सत्य की खोज करती है.और इस खोज के क्रम में वह श्रद्धा,विश्वास,परंपरा और धर्म, किसी भी बाधा को स्वीकार नहीं करती है.उन्नीसवीं सदी में आधुनिकता की लहर भारतवर्ष में बड़े जोर से उठी थी और जहाँ तक उसके मूल तत्व यानि बुद्धिवाद का सम्बन्ध है,हमारे महापुरुषों ने उसे स्वीकार भी किया था.परन्तु ‘यंग बंगाल’के के युवकों ने उसे अपने पथ से विचलित कर दिया.अपने धर्म का मजाक उड़ाकर,मांस और मदिरा का प्रचार कर,दिखावे के लिये दूसरे धर्म को अंगीकार कर, वे आधुनिक होने का दम भरने लगे.इससे तत्कालीन भारत आधुनिकता के इस विचार से ही नाराज हो गया.
आजादी के इतने वर्षों में भारत ने आधुनिकता की ओर सार्थक कदम बढाया है.नई दुनिया की बहुत सारी बातों को हमने स्वीकार कर लिया है.मनुस्मृति के सिद्धांतों के विपरीत हमने अपने संविधान में कई चीजों को स्वीकार किया है और उसे जीने की प्रतिबद्धता दिखाई है. मसलन, हमने नर-नारी के बीच असमानता को समाप्त करने का बीड़ा उठाया है.जाति,वर्ण-भेद के बिना सबको उन्नति के समान अवसर उपलब्ध कराने की ओर अग्रसर हैं.कल-कारखानों का विकास,सिक्षा का प्रसार ऐसी बातें हैं जिससे हम इनकार नहीं कर सकते.किन्तु हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि नया विश्व केवल सुख,सुविधा, स्वतंत्रता और भोग की दृष्टि से ही श्रेष्ठ नहीं हो बल्कि उसमें शांति और संतोष का भी प्राचुर्य हो.आधुनिकता का हम विरोध नहीं, स्वागत करते हैं.हमारा ध्येय केवल यह है कि विज्ञान और टेक्नोलोजी से हमें जो शक्ति प्राप्त हुई है,उसका उपयोग हम ऐसी दुनिया बनाने के लिये करें, जो वैज्ञानिक और रहस्यवादी, दोनों के लिये अनुकूल हो.आधुनिकता यदि मनुष्य को केवल शरीर मानती है,तो भारत का इस बात में उससे स्पष्ट विरोध है.क्योंकि हम आत्मा और शरीर दोनों के अस्तित्व में विश्वास करते हैं,और इसीलिये हमारा मंसूबा है कि हम,आधुनिक हो जाने पर भी,कुछ-कुछ प्राचीन बने रहेंगे.आधुनिकता के साइड इफेक्ट को हमारी प्राचीनता ही काउंटर कर सकती है.आधुनिकता से मनुष्य का सुख तो बढ़ा है पर उसकी शांति घट गई है.बल,बुद्धि अहंकार तो बढ़ा है मगर करुणा और विनम्रता घट गई है.यह अभाव किसी न किसी रूप में धर्म के वापस आने से ही दूर होगा. (श्रोत-आधुनिक बोध –रामधारी सिंह दिनकर) विनय कुमार सिंह
अहा जिंदगी मासिक पत्र में 'विमर्श' स्तम्भ में प्रकाशित .