महर्षि धौम्य के आश्रम में चहल-पहल थी.गुरुकुल के शिष्यों में असीम उत्साह था.आखिर उनके गुरु की इकलौती कन्या का विवाह जो होने वाला था.सभी शिष्य अपने घर से इस अवसर पर उपहार देने हेतु अपने घरों से कोई-न-कोई वस्तु लाकर गुरूजी को भेंट दे रहे थे.परन्तु इस खुशी के माहौल में भी आश्रम के दो व्यक्ति चिंता में डूबे बैठे थे.एक तो स्वयं महर्षि धौम्य और दूसरा एक बालक था.वह कई दिनों से अन्यमनस्क भाव से आश्रम में इधर-उधर घूमा करता.उसका न अध्ययन में जी लगता था न आश्रम के किसी और कार्य में.आखिर गुरूजी से रहा नहीं गया.उन्हौने आरुणि नाम के इस बालक को अपने पास बुलाया और पूछा,बेटा क्या बात है ? तुम्हें कोई परेशानी है ? मैंने गौर किया है कि न तो आश्रम के किसी कार्य में तुम्हारा मन लगता है, न विद्याध्यन में.और,तुमने मेरी कन्या के विवाह हेतु अभी तक कोई उपहार लाकर भी नहीं दिया है.अपने गुरु से कोई बात नहीं छुपानी चाहिये.मुझे अपनी परेशानी बताओ.हो सकता है,मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकूं.आरुणि ने उत्तर दिया-गुरूजी,आपकी कन्या का विवाह ही मेरे चिंता का मूल कारण है.मैं इस अवसर पर कोई उपहार नहीं ला सका हूँ.क्या तुम्हारे माता-पिता के पास पर्याप्त धन नहीं है,गुरूजी ने पूछा.आरुणि बोला,ये बात नहीं है.तो क्या तुम इस अवसर हेतु कोई उपहार मुझे नहीं देना चाहते हो?आरुणि ने कहा, गुरूजी यदि आप अनुमति दें तो मैं अपने माता-पिता से मांगकर बहुत सारा धन ला सकता हूँ .परन्तु आपने सभी शिष्यों से कहा है, जो भी वस्तु लाना, अपने माता-पिता और अन्य सभी लोगों से छुपाकर लाना.गुरूजी बोले,तो क्या तुम्हें इसका अवसर नहीं मिलता.कोई तो ऐसा समय होगा जब कोई देख न रहा हो.आरुणि ने उत्तर दिया,यह सही है कि कई अवसर पर मैं अकेला होता हूँ,जब कोई अन्य मुझे नहीं देख रहा हो,परन्तु मैं स्वयं तो इस चोरी को देख रहा होऊंगा.यदि मैं ऐसा करूं तो यह आपकी दी हुई शिक्षा के प्रतिकूल होगा.मैं यह पाप कर स्वयं और आपको पाप का भागीदार नहीं बना सकता.महर्षि धौम्य ने उसे गले से लगा लिया.पुलकित होकर बोले,बेटा तुमने मेरी सारी चिंता दूर कर दी.मुझे अपनी कन्या के लिये सुयोग्य वर आज मिल गया है.मुझे धन की नहीं,एक होनहार युवक की तलाश थी जो निर्भीक,अनुशासित,मेरी शिक्षा का पालन करने वाला हो.तुम मेरी कन्या के लिये सर्वश्रेष्ठ वर हो.
विनय कुमार सिंह