अब धीरे-धीरे ससुराल में रमने लगी थी । आस पास के लोगों से परिचय हो गया । गाहे- बगाहे मोहल्ले की बड़ी बूढी औरतें भी आने लगी थीं । बैठकर घंटों चर्चा चलता । चर्चा क्या ख़ास कुचर्चा का माहौल हो जाता था । हालाँकि इस प्रकार की मंडली में बैठने का कोई अनुभव तो था ही नहीं, ना ही अच्छा ही लगता पर ससुराल की बात थी, कैसे किसी को नाराज किया जाए । इसी बहाने लोगों को नजदीक से जान्ने और समझने का मौक़ा मिला । धीरे- धीरे फागुन का महीना भी आ गया और इसके साथ ही पतिदेव का भी आगमन हुआ । बड़ी ख़ुशी का माहौल था। शाम को होलिका दहन के बाद अगले दिन होली का खेल । मायके में थी तो कभी होली खुलकर खेलने का मौक़ा ही नहीं मिला । हमेशा ही बाबूजी का डर बना रहता था । बड़े ही कड़क स्वभाव के थे । रेलवे सुरक्षा बल में तैनात थे । पता नहीं कैसे जब भी कोई त्यौहार हो, छुट्टी लेकर घर में आ धमकते थे । उनके रहते हुए क्या मजाल कि घर की कोई लड़की चौकठ से बहार निकल जाए । धमाल मचाना तो दूर की बात थी । चाहे दो वर्ष की हो या बड़ी, सबके लिए समान नियम । एकदम मार्शल ला छा जाता । एक अनचाहा सन्नाटा पसर जाता था । यह लोगों को गुलाल और रंगों में सरोबार देखर बड़ा ही अच्छा लग रहा था । सुबह- सुबह ही सभी उठ गए । सोचा जल्द से जल्द खाना बना लिया जाए फिर होली खेलने में शरीक हुआ जाएगा । देवर-ननद सब अपनी- अपनी टोली बनाये होली खेलने मं लग गए और मैंने रसोई सम्हाल लिया । सभी आते, पकौड़े और गुझिया लेते और फिर निकल जाते । दोपहर होने को आया पर मेरे काम में कोई आराम नहीं । आज ढेरों व्यंजन बनाये थे पर कोई साथ बैठकर कुछ बोलने के लिए नहीं था। सब अपने-अपने में मस्त थे । सिलबट्टे पर मसाला पीसने के बाद अब भी हाथों में जलन हो रही थी । सब निपटा कर एक कोने में बैठ गई । आँखों से अनायास पानी झरने लगा । आज रसोई छुए एक महीना हुआ था । जबसे रसोई का शुरू की, कभी कोई हाथ बंटाने नहीं आया । अपने घर में कभी एक चम्मच भी नहीं धोया, पर यहाँ इतने लोगों का भोजन रोज बनाया जा रहा है, अब ससुराल का मर्म पता लग रहा था । न कोई आराम, न तारीफ, बस किये जाओ । मसाले की जलन के मारे हाथों की हालत खराब, पर किसी को कोई फ़िक्र ही नहीं । सब अपने में ही मशगूल। अचानक मोहन जी बाहर से आये, रोती देख पूछ लिया, 'क्या कोई तकलीफ है। अब क्या तकलीफ बताऊँ । ये भी तो मेहमान ही थे । दो चार दिनों के लिए आते और फिर नौकरी पर चले जाते । होली बीतने के दो दिनों के बाद फिर से अपनी ड्यूटी पर इन्हें वापस लौट जाना है । बस यही दो चार दिन का साथ जीवन को और भी ऊर्जावान कर देता है ।
उन्होंने धीरे से अपनी जेब से रंग निकला और मेरे चेहरे पर मल दिया । देखते-देखते मेरा गौर वर्ण काली-कलूटी के रूप में परिवर्तित हो गया । बाल भी बिखर गए । यह तक कि दांतों के रंग भी बदल गए । मोतियों जैसे चमकने वाले दांत न जाने किस रंग में घुल गए थे ।
मैंने झटके से कहा, 'ये क्या कर दिए, सब …. का.... 'ला' तो निकल ही नहीं पाया, देवर और ननदों ने भी आक्रमण कर दिया। अब तो और भी सरोबार हो गई, पता ही नहीं लग रहा था कि किस रंग में पहले रंगी गई । भूत जैसे सबसे चेहरे, कोई पहचान में ही नहीं आ रहा था । एक बारगी मेरे बोलने से सभी चौकन्ने हो गए । लोगों को लगा कि मैं नाराज हो गई । पर अगले ही पल स्फूर्ति आ गई और फिर सबको खींचते हुए बाहर ले आई । बस अब तो पूरी शमाँ ही रंगीन हो गई । आज पहली बार मैंने होली खेली, खूब जमकर खेली ।
दिन भर रंगों की हुड़दंग के बाद नहाते-धोते अभी शाम हुई ही थी कि लोग अबीर लेकर फिर से एक बार मिलने आने लगे । अब इसमें अबीर(गुलाल) ही लेकर आते हैं पर इससे भी लोग एक दूसरे को सरोबार करने से नहीं चूकते । एक तरह से यह भी सूखी होली ही होती है । मिलते-मिलाते रात हो गई । थकान के मारे नींद आने लगी थी । पर सबको छोड़कर कैसे सोने चली जाती। धीरे-धीरे फारिग होते-होते बारह बज गया । सबेरे उठकर फिर से दिनचर्या में लग जाना है।