कहने के लिए तो यह कलकत्ता था, पर माहौल पूरा देहाती ही था । कलकत्ता शहर के दूर शिल्पांचल का एक छोटा सा मुहल्ला । पूरा हाव- भाव और रहन सहन वही गाँव वाला। शहर के बीच देहात बसा था । बस विभिन्न प्रांतों और जिलों के लोगों के सम्मिश्रण से बसे इस मुहल्ले के लोगों की भाषा बदल गई थी । ना उत्तर-प्रदेश, ना बिहार और ना ही बंगाली हिंदी । ये न जाने किस प्रकार की बोली वाला मुहल्ला था । पर हिंदी जैसा ही था ।
जैसे ही रिक्शा ससुराल के दरवाजे तक पहुंची, आसपास के छोटे-छोटे बच्चे हमारे रिक्शा के भैया आ गए-,भाभी आ गई कहते हुए दौड़े आये और फिर कौतुहल से मेरी ओर देखने लगे । अब यहाँ भी गाँव जैसा माहौल, गाँव के अधिकांश लोग आस-पास रहते थे, इसलिए प्रथा तो निभानी ही थी । लम्बी घूँघट टाने रिक्शे से उतरी । कुछ साफ़ दिखाई तो दे नहीं रहा था, किसी तरह से लड़खड़ाते हुए, बांह पकड़े घर में प्रवेश की । मेरे इन्तजार में आस-पास की चाची और दादी पहले से ही खड़ी थीं । बड़ा ही जोरदार स्वागत हुआ । । ससुराल पर्व का आज पहला दिन और पहली शुरुआत अच्छी ही रही । मिलने-मिलाने के बाद सभी अपने-अपने घर चले गए । सबके जाने के बाद आश्वस्त होकर मैं बैठी और फिर अपने कमरे को देखना शुरू किया । आठ बाई दस का एक छोटा सा किराये का कमरा । मकान मालिक भी पड़ोस में ही रहते थे । मोहल्ले में अबतक ठीक से बिजली नहीं आई थी । मकान मालिक के घर में बिजली का प्रबंध था । काम चलने के लिए उन्होंने एक बल्ब का कनेक्शन दे रखा था । शाम होने के बाद उसका प्रयोग किया जाता था । ये भी फ्रेश होकर अपने दोस्तों के पास चले गए थे । रात में कुछ सात-साढ़े सात के बाद आये । आज जी भरकर मैंने इन्हें देखा । लाज तो अब भी आ रही थी कि लोग क्या कहेंगे ! अपने पति से बात कर रही है!!
धीरे-धीरे हमारी आपसे में बात होने लगी । मोहन उन दिनों दिल्ली में पोस्टेड थे । सेना में थे । अभी कुछ ही दिन हुआ था उनके लगे हुए । जैसे ही ट्रेनिंग पास की, शादी हो गई । दिसंबर का महीना था, चूँकि साल बीत रहा था, इसलिए छुट्टी भी कम दिनों की थी । बातों-बातों में बताया कि दो दिन और छुट्टी बची है, शुक्रवार को वापसी है । उनके जाने की बात सुनकर बड़ा ही जोर का धक्का लगा । अभी दो-चार दिन ही तो हुआ है । अभी ही जाना था ! पर नौकरी की बात और फिर, फिर आने की बात कहकर शुक्रवार की शाम को दिल्ली यात्रा के लिए निकल पड़े । इनके जाने की बात पहले ही मन में बेचैनी पैदा कर गई थी, और अब तो वो खुद भी चले गए । मारे लाज के न तो रो सकती थी ना ही किसी से कह सकती थी । अभी- अभी तो मायके से बिछड़ कर आई थी, और अब पतिदेव भी परदेसी....... !!!