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अधूरे ख्वाब - एक

27 सितम्बर 2021

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राधा घर में अकेले बैठी थी । अचानक गुजरे जमाने की बातें याद आने लगी ।

उस समय उसकी उम्र 19- 20 वर्ष के आसपास रही होगी । पहली बार उसने मोहन के अपनी शादी में देखा था । तब मोहन की भी उम्र 19-20 साल रही होगी । बरात आई, सब बरात के स्वागत में दौड़े चले गए । सखियों ने आकर बताया कि दूल्हा बहुत ही सुन्दर है, घुँघराने घने बाल, सलीके से सजाई हुई मूछें इत्यादि इत्यादि । सखियों से वर्णन

सुनकर यही इच्छा हो रही थी कि कब मौका मिले और उनके दीदार हों । धीरे-धीरे औपचारिकताएं पूरा होते रात के बारह बज गए । फिर शुरू हुआ मंत्रोचार के साथ वैवाहिक कार्यक्रम । मोहन के दादाजी लड़के वालों की तरफ से विवाहकरवाने वाले थे इसलिए चाहकर भी घूँघट से चेहरा निकाल नहीं सकती थी । गाँव का माहौल वह भी 80 के दशक का जहाँ

पर्दा और लाज की प्रथा इतना सख्त कि छोटी सी गलती किये नहीं कि उलाहना सुनाने वाले शुरू हो जाते थे ।  उन दिनों बारात मय दूल्हे के साथ दो से तीन दिन तक रुकती थी । इसे मरजाद रहना कहा जाता था । विवाह की रस्म पूरी होते-होते सुबह हो गयी । रश्मोअदायगी के बाद मोहन भी जनवासे में चले गए ।इस बीच शादी की रस्म पूरी होने के बाद घर की औरतें दूल्हा- दुल्हन के साथ कुछ लोकाचार निभाती हैं जिसमें

पासा खेलने की रस्म होती है ।इसमें एक बर्तन में दूध भरा रहता है,उसमें अंगूठी डाली जाती है,फिर दूल्हा- दुल्हन दोनों उस अंगूठी को ढूंढ कर निकालते हैं, जो निकाल पाया जीत उसकी मानी जाती है । पासा खेलने के दौरान एक आध बार उनके अँगुलियों का हल्का स्पर्श हुआ, मन उद्वेलित हो उठा । कितना कोमल स्पर्श था । घर की औरतों आधे समय तक उनको घेरे रहीं वो तो बस दूर से तकती रही,

कोई मौका ही नहीं मिला कि आपस में दो बातें कर सके । सूरज निकलने के साथ ही जनवासे से बुलावा आ गया और वो चले गये ।

अगले दिन बाराती मरजाद रहते है,जिसमें कई तरह के कार्यक्रम आयोजित किये जाते है। आपस में शास्त्रार्थ का कार्यक्रम होता है, गाने बजाने का कार्यक्रम होता है । बाकी खान पान वगैरह यथावत चलता रहता है । इस बीच एक रस्म होती है खिचड़ी खाने की । वैसे तो इसे खिचड़ी खाना कहा जाता है लेकिन खिचड़ी का कहीं नामो निशाँ नहीं होता है । दूल्हा एवं उसके परिवार के लोग आँगन में आकर भोजन

करता है । यहाँ दूल्हा खाने के पहले रूठता है और दुल्हन के घरवाले उसे मनाते हैं ।इस मान मनौवल में दूल्हा अपने मन की कोई माँ ग रखता है, उसे लड़की वाले पूरा करने का वचन देते हैं,फिरजाकर सब भोजन करते हैं । पर यहाँ तो उलटा ही हुआ । मोहनजी ने थाली आगे आते ही सबसे पहले अधिक भोजन सामग्री को निकलने की गुहार लगाईं । अधिकांशतः दूल्हे के भोजन के

बाद बचे हुए भोजन को दुल्हन को खिलाया जाता है । यह मान्यता है कि इससे दोनों के रिश्ते में प्रगाढ़ता आती है । पर यहाँ तो सब उल्टा ही हो गया, जब अधिक सामग्री उन्होंने निकलवा दिया और बिना रूठे ही भोजन करना प्रारम्भ कर दिया । सब लोग चकित थे कि ऐसा सीधा लड़का, बड़ी भाग्यवान है हमारी रजनी । भोजन के कार्यक्रम के बाद सब लोग वापस जनवासे में चले गए । उन दिनों गौना का रिवाज था ।

शादी के बाद बाराती एवं दूल्हा वापस अपने घर चले जाते हैं,लड़की मायके में ही रह जाती है । फिर जिसको जैसा सम्भव हो सके,एक साल या तीसरे साल फिर से आधी बारात लेकर आते हैं और दुल्हन को ले जाते हैं । शादी के बाद से गौना होने तक लड़का-लड़की को आपस में मिलने एवं बात करने तक की सख्त मनाही रहती है । सब चले गए,बस यादे छोड़ गए ।

शादी-विवाह का समारोह बीत गया, फिर से दुनियादारी अपने जैसे चलने लगी । पड़ोस में एक चाचाजी थे, उनके लड़की की शादी दो दिन बाद होनी थी ,बारात आयी, शादी में काफी रौनक थी । दूल्हे में सबको मोहन के जैसे व्यवहार की तलाश थी पर सब एक जैसे कहाँ होते हैं । हर तरफ बस उनकी ही चर्चा चल रही थी । यह सब सुनकर मन के किसी कोने में बड़ा ही आनंद मिलता था । शादी की सारी

तस्वीरें छोटी बहन ने अपने पास संजो कर रख लिया था । कभी इच्छा होती कि एक बार ठीक से निहार लिया जाए पर लोकलाज और शर्म दोनों ही आड़े आ जाता था । धीरे-धीरे समय बीतने लगा । गौना का भी दिन रख दिया गया । वह दिन भी पास आ गया। जैसे जैसे विदाई की घड़ियाँ पास आ रही थी मन में रह-रह कर एक ख्याल आता कि एक तो ठीक से देखा भी नहीं ऊपर से यादों की कोई तस्वीर भी साथ नहीं,

फिर उन्हें कैसे पहचानूंगी । कहीं ऐसा ना हो कि उनके जगह पर किसी और का अभिवादन कर बैठू । खैर, इन्तजार की घड़ियाँ भी बीतीं और वो अपने कुछ रिश्तेदारों के साथ लिवाने के लिए आ गए. रात भर लोग रहे, जैसे ही सुबह हुआ,दिल धक् सा कर उठा । अरे ! आज मैं अपना घर छोड़ कर जा रही हूँ ! जिसे अबतक देखा नहीं, उसके साथ,

वह भी परदेश में ! वहां अपना तो कोई होगा ही नहीं । कभी कोई बात कहनी हो तो किससे कहूँगी । सुख- दुःख और फिर मन की व्यथा ।  पर कौन बेटी के दिल की ये बाते समझता है । बेटी व्याही गई तो उसे विदा होकर एक दिन जाना ही होगा । सब रो रहे थे । रोते- गाते रस्मअदायगी के बाद विदाई कराकर साथ लेकर चल पड़े।  आज जान पाई थी,

अपने पिता के घर से विदा होने का मर्म। यही लगता कि न जाने कहाँ से दुनियादारी आ गई,परायों की बस्ती में अपना कहे जाने वाले के साथ । अबतक तो इनका चेहरा भी नहीं देखा था ।

लम्बी सी घूँघट और फिर रो- रो कर आँख से भी धुंधला दिख रहा था । पर इनके बातचीत का ढंग और आवाज में जो आकर्षण था,वह मुझे ही खींचे जा रहा था । लगभग आधे घंटे की सवारी के बाद हमारी गाडी मेरे ससुराल पहुँच गई । बड़े ही हर्ष के साथ स्वागत हुआ । गाँव-घर की बूढी- जवान सभी महिलाओं ने बारी-बारी से देखा, मुंह दिखाई की रस्म पूरी हुई । अब बाकी था घर की बुजुर्ग दादियों की सेवा-टहल। उन्हें उबटन या फिर तेल लगाकर उनका हाथ- पैर दबाना पड़ता था। लोकाचार और रश्मों- रिवाजों में शाम ढल गई । रौशनी के लिए लालटेन जला दिए गए । धीरे- धीरे सब अपने-अपने घर चले गए। दिन भर की थकी- माँ दी थी, नींद आई और सो गई । पता ही नहीं लगा कि वो कब आये, और कब सुबह हो गई । चूँकि गाँव में उन दिनों शौचालय नहीं हुआ करता था इसलिए तड़के ही उठकर खेत जाना पड़ता । आँख खुली तो देखा कि वो बगल में खर्राटे ले रहे थे । आज इतने वर्षों के बाद खुलकर उन्हें देखने का मौक़ा मिला । चुपके से ही निहारती रही । घुंघराले बाल,सधी हुई हलकी-हलकी मूंछ । बड़े ही आकर्षक लग रहे थे । अभी दो पल ही चुपके से उन्हें निहारा था कि बाहर से चाची जी की आवाज आई, 'बहु, चलो देरी हो रही है।' दीदार अधूरा छोड़कर अनमने ढंग से उनके साथ निकल पड़ी । विदाई के बाद वाले दिन मायके से पिताजी और भाई मिलने आये थे । आज भी कुछ रश्में निभाई गई और फिर शाम तक रुकने के बाद वो लोग भी चले गए । चूँकि ससुराल के सभी लोग कलकत्ता में रहते थे इसलिए गाँव में यही दो दिन बिताने की बाद अगले दिन रेल की यात्रा करनी थी,वापसी की तैयारियां शुरू हो गई । गाँव से शहर और फिर शहर से रेलगाड़ी में और दादी की दुलारी बिटिया से अब ससुराल की बड़ी बहु की मेरी यात्रा प्रारम्भ हो गई ।

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अधूरे ख्वाब
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ग्रामीण अंचल में पली बढ़ी लड़की का ग्रामीण-शहरी माहौल में आकर उस माहौल की दिक्क़ते झेलते हुए ख्वाब बुनने और उन खाव्बो को कभी हकीकत बनते और कभी ढेर होते देखने की कहानी .

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