सर्दी का मौसम, ऊपर घने बादल छाए हुए हैं। दिल्ली जाना जरूरी था इसलिए मैं घर से निकल पड़ा। जीटी रोड पर चडते वक्त बरसात की बौछारें, तेज़ हवा और अति ठंडी का वातावरण बन गया। कुछ दुरी पर देखता हूं, जंगल की तरफ से निकल कर दो अधेड़ उम्र के आदमी हाथ उठाकर मेरी गाड़ी को रोकने का प्रयास करने। बरसात से बचने के लिए न इनके पास छाता न अन्य साधन। उनके समीप आकर मैं अपनी गाड़ी रोक लेता हूं।
"साब! हमें पानीपत जाना हैं और हमारी यह बच्ची सख्त बिमार है।" उन्होंने बच्ची को दिखाते हुए कहा। एक पल तो मैं गंदी सीट के उद्देश्य से हिचक जाता हूँ लेकिन दूसरे पल उनकी जर्जर अवस्था और बीमार बच्चे की की सोचता हूं तो मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और उनको बैठा कर चल देता हूं।
दोनों की उम्र से साफ़ था यह बच्चे के दादा - दादी हैं। पूछने पर पता चला बहू की तबीयत खराब चल रही है और बेटा सुबह - सुबह मजदूरी पर निकल गया था। रोड पर ही अस्पताल आते ही मै उन्हें उतार देता हूं। वह लोग मेरी तरफ भाड़े की ऐवज मे गाड़ी ही निकाल कर पैसे करते हैं।
"मैने हंस कर कहा यह भाड़े की गाड़ी नहीं है आप फौरन अस्पताल के अंदर जाइये।" दोनों के चेहरों पर श्रद्धा के भाव इतने उत्पन हुए की मै व्याख्या नहीं कर सकता। और वह मेरे बच्चों को दुनिया भर के आशिष देते हुए अस्पताल में घुस गए। मैं सोचता हूं गरीब लोग कितने श्रद्धाशील स्वभाव के होते हैं। मैरा कुछ भी खर्च नहीं हुआ। अपने एकलौते बेटे के लिए इतना खर्च किया श्रद्धा तो दूर की बात शादी करवाते ही अलगाववादी हो गया। जब आंखों में नमी उतरती है पलकें भी उनका सहारा बन जाती है। एक दिन का खाना भी नशीब नहीं हुआ बहू के हाथों का।
स्वरचित :नयपाल सिंह चौहान
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