इकलौती शांता के उपर पापा का साया नहीं है। उसने किसी की आधुनिक विचार धारा में बह शादी न कर परिंदों की जिंदगी जीने का फैसला कर लिया है। कुछ दिनों बाद यह बात मां के सज्ञांन में आई तो वह रात भर सोई नहीं परेशान सी रही। अच्छे से अच्छे रिश्तों को ठुकरा देना शायद यही कारण है उसका।मां जानती थी कि शांता के मन में जो बात बैठ जाती है तो उसे पूरा करके ही सांस लेती हैं। मां ने फोन करना उचित नहीं समझा। सुबह हुई और दिल्ली में बैठी शांता से जा मिली।
-शांता बेटा! जो मैने सुना है क्या वह सच है? " शांता मां की बात को समझ गयी और खिसयानी सी आवाज में बोली,
-हां मां, सच है पर संडे को घर आकर आपसे बात करने ही जा रही थी।"
-देख बेटा, शादी औरत की पहचान और उसकी सभ्यता सुरक्षा की लाज है, भूलकर भी ऐसा मत सोचना। शादी दुनिया का दस्तूर है और इसी दस्तूर से संसार की उत्पत्ति हुई है और होती रहेंगी।"
-हां मां, मै यह सब जानती हूं, लेकिन आज के सामरिक वातावरण में शादी एक खुंटा है जिससे बधंकर मैं जीना नहीं चाहती।"
-बेटे, तुम्हारे पापा के खुंटे से बधंकर परिंदों से भी बडकर आजादी की जिंदगी जी हैं कभी भी मैने अपनी आंखों में परेशानी के आसूं नहीं देखें, पर अब तू दिखा कर रहेगी। नाती नातिन का मुहं देख लेती....... मां पुरी बात रखती इससे पहले ही उसकी छाती भर आई और फूट फूटकर रोने लगी-अच्छा मां, रो मत! आप नाती-नातिन का मुहं देख लेना। " कह शांता अपने ढुप्पटे से मां के आसूं पौछने लगी।