साल भर के बीच स्नेहा को देखने अनेक परिवार आए। लेकिन हैसियत से बडकर उन लोगों की मांग स्नेहा के रिश्ते को हड़प लेती रही। चिंता परेशानी में पूरा परिवार था क्योंकि स्नेहा घर में बड़ी और सबकी लाडली भी थी। एक दिन स्नेहा के पिताजी ने
दहेज की मांग की पूर्ति करने के लिए एक खेत का टुकड़ा बेचने का निर्णय कर लिया था। परंतु स्नेहा के कड़े विरोध करने पर वह रुक गए थे। आज स्नेहा के मामाश्री का फोन आया था और मामाश्री ने बताया कि पढा - लिखा लड़का है। सभ्य सम्पन्न परिवार है। और न उनकी कोई मांग है। उन्होंने सिर्फ ओर सिर्फ हमारी स्नेहा जैसी बेटी चाहिए। अगले दिन वह लोग मामाश्री के साथ आ गए और स्नेहा को अपनाकर चले गए। लड़का सावले रगं का था। स्नेहा को अपनाने से पहले ही मम्मी
व उसकी बहन ने लड़का को न पसंद कर इस रिश्ते को साफ साफ शब्दों में इन्कार कर दिया था। लड़के को देखते ही स्नेहा के साथ साथ उसकी बहन को जबरदस्त धक्का सा लगा और मानो उन सभी के उपर पहाड़ सा टूट पड़ा हो। स्नेहा ने जैसे जीवन साथी के सपने मन में संजोए थे वह सारे चुर चुर हो गए थे। मम्मी पिताजी व मामाश्री पर हर समय भले बुरे शब्दों में बड़बड़ाने लगी। स्नेहा की भी किसी अंधकार में भटकने जैसी स्थिति हो गई। इन्ही परिस्थितियों में एक दिन स्नेहा की शादी हो गई। सुबह शाम फोन पर बातें होती रहती थी फिर भी स्नेहा की तरफ से खासकर मम्मी व उसकी बहन को उसके दुखी रहने का एहसास होता रहता था। कुछ दिनों बाद स्नेहा घर आई। मम्मी सामने थी स्नेहा दौड़ कर उनके गले में चिपक गई। मम्मी पिताजी व मामाश्री को भला बुरा कहने लगी।
"मम्मी! पिताजी व मामाश्री को कुछ मत कहो? मैं बहुत खुश हूं। सारे परिवार का सौहार्द पूर्ण वातावरण और ममता का इतना सुख मिला की मानो हर खुशी मुझे ही मिल गई हो।" यह. बातें सुनकर पास खड़ी छोटी बहन की आखें भर आई और फिर स्नेहा मां के आसूं पोछकर छोटी बहन के गले लग कर उनसे बोली,
" बाहर बैठक में तुम्हारे जीजा जी, अकेले बैठे हैं उनको अंदर ले आओ। "
स्वरचित :नयपाल सिंह चौहान