आलोक श्रीवास्तव "अंजान"
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शहर लखनऊ... कहने की ज़रूरत नहीं हैं इस शहर के बारे में.. लोग भलीभांति इसे पहचानते हैं और मैं गर्व से कहता हूँ... हाँ मेरी जन्मभूमि हैं ये. इस शहर के जानिब बस इतना ही..... इस शहर की आबो-हवा के, हम पर इतने सायें हैं, हमने तो मुफ़लिसी में भी, यहाँ खूब जश्न मनाये हैं, अदब व तहजीब के संग, दौड़ेगा जब तलक रगो में खूँ कोई भी तेरी हस्ती मिटा, सकता नहीं ए! लखनऊ..... इस शहर की मिट्टी ही ऐसी हैं की आप खुदबखुद साहित्य से जुड़ जाते हैं और शायद मेरे साथ भी यही हुआ है.. पिताजी की रचनाओं को पढ़ कर और उन से प्रेरित हो कुछ लिखने का प्रयास करने लगा जो की बदस्तूर जारी हैं. एक मल्टी नेसनल बैंक के ग्रुप फाइनेंस सिस्टम में कार्यरत हूँ.. समय का आभाव रहता है किन्तु जब भी मौका पाता हूँ लेखनी चल ही जाती हैं.
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