( रेट रेस ----(कहानी दूसरी क़िश्त) )
अर्जुन को कई मल्टीनेशनल कंपनियों के जॉब - ऑफ़र मिलने लगे । उसकी इच्छा थी अमेरिका में जॉब करने की । अतः उसने शिकागो स्थित सिस्टोपिक कंपनी ज्वाइन करने का मन बना लिया । उसको सिस्टोपिक कंपनी ने सालाना एक करोड़ रूपयों का ऑफ़र दिया था । वहीं नकुल ने कार निर्माण में नई नई उतरी कंपनी ओमेगा में जूनियर इंजीनियर पद ज्वाइन कर लिया । कंपनी का प्लांट नोएडा और फरिदाबाद में था । सेलेरी निर्धारित तीस हज़ार रूपये प्रतिमाह साथ में हास्टल में रहने की सुविधा भी प्रदान की गई ।
अर्जुन एक महीने के अंदर शिकागो पहुँच गया । वैसे तो सिस्टोपिक कंपनी का मूल काम साफ्टवेयर तैय्यार करना था पर उसे फायनेन्स सेक्सन की ज़िम्मेदारी दी गई । दो महीने में ही अर्जुन अपने काम से उक्ता गया और सिस्टोपिक छोड़ लास एंजिल्स की फिलिफ्स कंपानी ज्वाइन कर लिया। वहाँ उसका मुख्य काम सॉफ्टवेयर तैय्यार करना था और उसने स्टडी भी कम्प्यूटर साईन्स में ही की थी अतः जॉब फ्रस्टेशन नहीं था । अचानक एक दिन उस ऑफिस में एक चायनिज इन्जीनियर उसका बॉस बनकर आ गया । उम्र में उससे दस साल छोटा था और पढ़ाई भी चाईना के किसी अन्जान कॉलेज से किया था पर " प्रोगामिंग " में उस चायनिज की मास्टरी थी। उसकी इसी क्षमता को देख फिलिप्स के मैनेजमेंट ने उसे लास एंजिल्स ऑफिस का मुखिया बना दिया । अब अर्जुन को अपने हर काम को उस चायनिज साहब को दिखाना पड़ता था और उनकी संतुष्टि के बाद ही काम को आगे बढ़ाया जाता था । " चायनिज साहब " अर्जुन द्वारा बनाये अधिकांश " प्रोग्रामों में कुछ न कुछ ग़लती निकाल देता था और कैसे सुधारा जाय , ये तरीका भी बताता था । अर्जुन इस बात से परेशान रहने लगा कि मेरे जैसे इंटेलीजेंट और आईआईटियन को एक साधारण कॉलेज से पढ़ा " चायनिज " प्रोग्रामिंग कैसे सिखा सकता है ? वो मेरी गलती कैसे निकाल सकता है ? हालाकि वह जानता था कि आज तक चायनिज ने अर्जुन के काम में जितनी भी ग़लतियाँ निकाली थी वो वाजिब थीं और उन गलतियों को सुधारने के जो तरीके बताये वो सभी के सभी बिल्कुल सही थे । अर्जुन अब काम्पलेक्स का शिकार हो चुका था । उसने 4 महिनों में ही वह फिलिप्स कंपनी से त्याग पत्र देकर, ओटिस कंपनी ज्वाइन कर वाशिंगटन पोस्ट शिफ्ट हो गया । अर्जुन इसी तरह कभी काम से फ्रस्ट्रेट होकर या कभी अच्छा ऑफ़र मिलने के कारण साल दो साल में कंपनियाँ बदलता रहा और अमेरिका में कभी यहाँ तो कभी वहाँ यायावर की तरह घूमता रहा ।
उधर नकुल को " ओमेगा मोटर्स " में काम करते करते दस वर्ष बीत गये । उसने कंपनी में फ्यूल एफिसीयेन्सी बढ़ाने और " कार सेफ्टी " की दिशा में कंपनी को कुछ ऐसे सुझाव दिये जो शत प्रतिशत व्यवहारिक और बेहद मुकम्मल थे । जिन्हें कम्पनी ने अपनी कारों में माडिफिकेशन के रूप में स्वीकार कर लिया । जिससे ओमेगा कंपनी मिडिल कार सेगमेंट का एक बड़ा प्लेयर बन गया । उसकी कारों की बिक्री में आशातीत वृद्धि होने लगी । ईनाम स्वरूप कंपनी ने नकुल को " दो प्रमोशन " एक्स्ट्रा देकर उसका सम्मान किया । अब नकुल कंपनी के फरीदाबाद फैक्ट्री का जी.एम. हो गया । इस बीच नकुल की शादी भी हो गई । उसकी धर्मपत्नी " संगीता " एक मिडिल क्लास वैश्य परिवार की सुशिक्षित व सुसंस्कृत बेटी थी । वह नकुल को खुश रखने तथा टेन्शन फ्री रखने में कामयाब थी । नकुल की कंपनी " ओमेगा " ने अपना विस्तार करते हुए पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में भी फेक्ट्रियाँ चालू कर दी साथ ही अपनी कारों में कम्प्यूटराईज्ड टैक्नोलॉजी को महत्व देते हुए उस मुकाम पर पहुँच गई कि एक दो साल में मार्केट में ऐसी कार उतारने की स्थिति में आ गई जिसमें कार में बैठकर आपको अपने डेस्टिनेशन को फीड करना पड़ेगा । उसके बाद कार को डेस्टिनेशन तक पहुंचाने का काम कम्पयूटर करता । इस बीच नकुल कंपनी का बेहद महत्वपूर्ण ऑफिसर बन चुका था । कंपनी उसके काम और नॉलेज से खुश होकर उसे कंपनी के टॉप - मैनेजमेन्ट का हिस्सा बना लिया । उसकी सैलरी और सुविधा में खासी बढ़ोतरी कर दी गई । कंपनी का दस प्रतिशत शेयर भी उसे उपहार स्वरूप मिल गया । यानि नकुल को एक तरह से कंपनी में मालिक का दर्जा मिल गया ।
अर्जुन अमेरिका के विभिन्न कंपनियों में काम करते करते अच्छा खासा पैसा जोड़ लिया पर कैरियर के चक्कर में उसकी शादी न हो पाई । साफ्टवेयर कंपनियों के काम करते करते भी अर्जुन की रूचि इलेक्ट्रिकल फिल्ड में कम नहीं हुई थी । उसे जब भी वक्त मिलता इलेक्ट्रिकल की किताबों को पढ़ता और अपने पास रखे , इलेक्ट्रिकल एप्लाइन्सेस को खोलकर उसमें माडिफिकेशन करने की कोशिश करता । बरसों से उसके मन में दबी हुई एक इच्छा अब बलवति होने लग गई थी कि एक ऐसा इलेक्ट्रिकल एप्लायन्स बनाया जाय जो बेहद उपयोगी हो और अभी मार्केट में आया न हो । वैसे तो बहुत दिनों से ऐसा सबमर्सिबल पम्प की डिज़ाइन बनाने में जुटा था जो वेल में पानी कम होने से अपने आप बंद हो जाये स्वीच बंद करने की ज़रूरत न पड़े अर्थात पानी की कमी के कारण पम्प जलने की समस्या से आम उपभोक्ता को निजात मिल जाये । अर्जुन जब पूर्ण तरह से आश्वस्त हो गया कि उसके द्वारा किया गया मॉडिफिकेशन पूर्ण मुक्कमल है तो ऐसे पम्प बड़े पैमाने में बनाने की सोचने लगा । अब उसने पक्का मन बना लिया कि तीन महिनों के अंदर नौकरी छोड़ कर अपने द्वारा ईजाद किये गये " पम्प " की फैक्ट्री डाली जाय । चूंकि अमेरिका में ऐसी फैक्ट्री डालना बेहद महंगा था अतः उसने अमेरिका की नौकरी से त्याग पत्र देकर भारत आने का मन बना लिया । चार महीने बाद अर्जुन अमेरिका से बोरिया - बिस्तर लपेट कर भारत आ गया और अपने प्रोजेक्ट के लिये छत्तीसगढ़ प्रांत के चाँपा ज़िले में प्लांट डालने हेतु तैय्यारी करने लगा । सबसे पहले वहाँ के इंड्रस्टियल एरिया में पाँच एकड़ ज़मीन खरीद ली फिर विभिन्न सरकारी ऑफ़िसों में अपने प्रोजेक्ट हेतु नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट प्राप्त करने चक्कर लगाने लगा ।
अर्जुन को भारत आये दो साल और गुज़र गये पर अभी तक उसका सपना अधूरा था । चाँपा की ज़मीन के बाऊंडरी वॉल के निर्माण के साथ - साथ कुछ ज़रूरी सिविल कार्य भी हो चुके हैं पर अभी तक विभिन्न विभागों से अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं मिल पाया था । मिनिस्ट्री और डॉयरेक्टर ऑफ़िस का चक्कर लगाते - लगाते अर्जुन परेशान हो चुका था । भारत देश में सरकारी काम कैसे कराया जाता है , इसकी उसे जानकारी तो थी नहीं।
( क्रमश: )