------------रैट- रेस---- ( कहानी -प्रथम क़िश्त)
दशरथ साव दुर्ग शहर के जाने - माने वकील हैं । उनका पुत्र ' अर्जुन ' सरकारी स्कूल , दुर्ग में ग्यारहवीं का छात्र है । पढ़ने में बेहद तेज़ , कुशाग्र बुद्धि वाला लेकिन वो चपलता का शिकार भी है। अन्य चीजों में उसकी कोई रूचि नहीं है । दशरथ जी अपनी प्रैक्टिस में बहुत व्यस्त रहते थे।
स्कूल में ' अर्जुन ' का कुल जमा एक ही दोस्त है ' नकुल सोनी ' । नकुल वैसे तो खेलकूद , साहित्यिक - सांस्कृतिक गतिविधियों में हमेशा अव्वल रहता है पर पढ़ाई में मध्यम श्रेणी विद्यार्थी को कतार में आता है । वो किसी भी काम को हड़बड़ी में करने में विश्वास ही नहीं रखता । हालाकि नकुल दसवीं कक्षा का विद्यार्थी है और धीर - गंभीर प्रवृत्ति का है फिर भी न जाने क्यूँ अर्जुन और नकुल में गहरी दोस्ती है । नकुल के पिताजी कृष्णा सोनी जी दुर्ग शहर से दस कि.मी. दूर जेवरा सिरसा के सरकारी स्कूल में हेड मास्टर पद का भार संभाल रहे हैं। वे रोज ही नकुल को बुलाकर रोज की पढ़ाई का लेखा जोखा लेते और कहते की कोई परेशानी हो तो बताओ। अर्जुन और नकुल में एक बात कामन है कि दोनों को फिजिक्स के विषय अच्छे लगते हैं और दोनों ही इन्जीनियर बनना चाहते हैं । ' अर्जुन साव ' जब ग्यारहवीं में पहुंचा तो अपनी पढाई में व्यस्त हो गया । उसने कोचिंग हेतु सचदेवा ट्यूटोरियल भी ज्वाइन कर लिया । ख्वाहिश थी की आई . आई.टी. में अच्छे नम्बरों से सेलेक्ट हो जाऊँ । । बारहवीं कक्षा में अर्जुन ने जी तोड़ मेहनत की और आई.आई.टी. के अलावा ए.आई. ट्रिपल , कॉमेड, पिलानी की परीक्षाये दिया । वो हर समय केवल आई.आई.टी. का ख्वाब था । पन्द्रह दिन पश्चात जब आई.आई.टी. का परिणाम आयो उसकी रैंकिंग बारह हज़ार के आस पास थी । कॉमेड की परीक्षा में उसने टॉप किया था । कोमेड की कौन्सिलिंग में इलेक्ट्रिक्त इलेक्ट्रानिक्स का कोर्स चुनकर वो घर आ गया । पर अर्जुन के दिमाग में कुछ और चल रहा था । वो हमेशा यह सोचते रहता था कि मैं आई.आई.टी. लेवल का विद्यार्थी हूँ ,कॉमेड संबंधीत जितने भी कालेज हैं,मेरे स्तर के नहीं हैं । अपनी इस उलझन को किसी से शेयर नहीं किया और कॉमेड में अपने अंक की बदौलत" त्रिची " कॉलेज़ ज्वाइन कर पढ़ाई करने लगा ।
त्रिची मेँ दो महिने बिताने के बाद भी उसका मन नहीं लगा । आई.आई.टी. वाली उलझन उसके दिमाग में हर वक्त रही । एक दिन बोरिया बिस्तर लपेटकर वो वापस दुर्ग शहर आ गया और घर वालों को कनविन्स किया कि मैं एक बार फिर आई.आई.टी. हेतु कोशिश करना चाहता हूँ । घर वालों को भी उसके इस निर्णय पर कोई आपत्ति नहीं थी ।
उधर उसका दोस्त नकुल सोनी भी बारहवीं कक्षा में आ चुका था । अपनी रूचि के अनुरूप मैथ्स लेकर वो भी इन्जीनियर बनना चाहता था । वो अपनी क्षमता ' को समझता था , अतः वह कभी भी ये बात सोचकर परेशान नहीं होता था कि मुझे आई.आई.टी. से या एन.आई.टी. से या बिट्ज पिलानी से ही इन्जीनियरिंग करनी है । मेहनत करने में उसका कोई मुकाबला नहीं था। साथ ही
वह एक्सट्रा करीकुलर एक्टिविटस में भी बड़े मनोयोग से भाग लेता था ।
अर्जुन और नकुल की अपनी अपनी एक ख़ासियत थी । ' अर्जुन अपने घर के बिजली के पंखे , एयर कंडिशन मशीन , हीटर , इलेक्ट्रिक्ल्स आयरन , अगर बिगड़ जाये तो खोल लेता था और बनाने का प्रयास करता था। जिसमें कभी वो सफल भी हो जाता , वरना घर में गाली भी खाता था और नकुल कभी अपने पिताजी के स्कूटर का नट टाइट करता था , कभी प्लग साफ़ करता था तो कभी ब्रेक को टाईट करता था । उसे आठवीं क्लास से ही स्कूटर चलाना आता है , जबकि उसे किसी ने सिखाया नहीं था । अगले वर्ष एन्टेरेन्स एक्जाम का समय तेजी से पास आता गया। अर्जुन और नकुल अपने अपने हिसाब से खूब तैय्यारी कर रहे थे । दोनों ही आई.आई.टी. , ए.आई. टिपल के अलावा अन्य बहुत सारी जगहों के एन्टेरेन्स की परीक्षायें दिलाकर परिणाम का इंतज़ार कर रहे थे। अर्जुन परिणाम को लेकर टेन्स हो था कि इसका चयन आईआईटी में होगा या नहीं। वहीं ' नकुल ' टेन्शन फ्री था। उसकी बस एक ही खवाहिश थी कि मुझे आटो - मोबाइल के क्षेत्र में ही आगे की पढाई. करनी है। परिणाम आया तो अर्जुन को बेहद खुशी हुई , उसकी मेहनत रंग लायी थी । उसका रैंक आई.आई.टी. में चार हज़ार के अंदर था । उसे इलेक्ट्रिकल इन्जीनियर बनने की इच्छा थी , पर उसकी यह भी इच्छा थी कि पवई ( मुम्बई ) से ही आई.आई.टी. करे । खड़कपुर में उसे " इलेक्ट्रिकल " की सीट मिल रही थी वहीं मुम्बई में इलेक्ट्रिक्लस की सीट उससे आगे वालों ने ले ली थी । वहाँ " कम्प्यूटर साइंस " की सीट खाली थी । उस पर मुम्बई का भूत इतना हावी था की खड़कपुर में मन मुताबिक ब्राँच मिलने के बावजूद उसने पवई में कम्प्यूटर साईन्स ज्वाइन कर लिया ।
उधर नकुल की सिर्फ़ एक ही इच्छा थी किसी भी ठीक ठाक कालेज से ऑटो - मोबाइल इंन्जीनियर बनने की । आई.आई.टी. में वो काम्पीट नहीं कर पाया पर कोमेड ( कर्नाटक राज्य परीक्षा ) में व छत्तीसगढ़ पीईटी . में उसकी रैंकिंग अच्छी थी । कामेड के कौन्सलिंग में उसे अन्य सभी ब्राँच मिल रहे थे वो भी बैंगलुरु के नामी कॉलेज़ों में जबकि ऑटो - मोबाइल ब्राँच उससे आगे वालों ने ले ली थी । वहीं दुर्ग शहर के बी.आई.टी. कॉलेज में इसे आटोमोबाइल ब्राँच आसानी से मिल सकता था, क्यूँकि छत्तीसगढ़ पीईटी का वो टॉपर था । उसने बिना माथा - पच्ची किये दुर्ग बी.आई. टी . कॉलेज में ऑटो - मोबाइल विषय मिलने पर दुर्ग बी.आई.टी. में ही एडमिशन ले लिया । सेशन स्टार्ट होते ही अर्जुन मुम्बई चला गया और नकुल दुर्ग के बी.आई.टी. कॉलेज में पढ़ाई करने में मशगूल हो गया । अर्जुन हर छः महीने में सेमेस्टर की परीक्षा दिलाकर पन्द्रह दिनों के लिए दुर्ग आता था । यहाँ दोनों पन्द्रह दिनों तक खूब मस्ती करते थे । उनकी दोस्ती अब भी वैसी ही मज़बूत थी जैसे स्कूल के दिनों में थी । इस तरह चार साल यानि आठ सेमेस्टर इतनी तेज़ी से गुज़रे कि अहसास ही नहीं हुआ । देखते ही देखते दोनों इन्जीनियर बन गये और नौकरी की तलाश में जुट गये ।
( क्रमशः)