बात 1964-70 की है जब हम होली खेलते थे। उस समय होली आजकल की तरह रेडीमेड नहीं रखी जाती थी। बल्कि सवा महीने पहले बसन्त पंचमी के दिन चौराहों पर लकड़ी व कण्डे डालकर होली के त्यौहार की शुरुआत की जाती थी। पहले के बच्चे लकड़ी बेचने वालों से होली पर लकड़ी और कण्डे डालने को कहते थे। लकड़ी बेचने वाला दो चार लकड़ी रोज या कोई कभी कभी डाल देता था। कण्डे वाले भी गधे पर कण्डे बेचने आते थे। मोहल्ले के बच्चे हल्ला मचाते हुए इकठ्ठे होकर उससे कण्डे डलवा लेते थे। इसी तरह कई लकड़ी व कण्डे बेचने वाले आते थे। बच्चे उससे दो चार कण्डे और लकड़ी होली पर डलवा लेते थे। बच्चे खुद भी दो चार कण्डे या लकड़ी उठाकर डाल देते थे। बेचने वाले बच्चों को मना भी नहीं करते थे। बड़े बड़े बच्चे घरों में घुस जाते थे। और चारपाई व टूटे फर्नीचर लाकर होली पर डाल देते थे। और चिल्लाते थे होली है भई होली है। वे पेड़ उठा उठाकर लाकर होली पर डालते थे। इस तरह पूरे महीने में होली धीरे धीरे ऊंची होती चली जाती थी। होली के हल्ले से खूब रोनक होती थी। छतों पर गोबर की गूलरी बनाकर सुखाई जातीं थी। उनके सूखने पर उनकी माला बनाकर होली पर चढ़ाई जाती थी। हमारा घर होली मोहल्ले में था। वहाँ पूरे शहर की सबसे बड़ी होली जलाई जाती थी। जो कि हमारे घर के ठीक सामने जलती थी। सारे दिन होली का हल्ला रहता था। रात को चार बजे होलिका मईया की जय बोलकर होली जलाई जाती थी। फिर सब अपने घर जाकर अपने परिचितों को भुनी जौ की बाली देते थे। और फिर गुलाल का टीका लगाते थे और होली खेलना शुरू हो जाती थी। सब बच्चे मोहल्ले में जाकर पिचकारीयो से होली खेलते थे। और भाग भागकर संगी साथियों के संग खूब होली खेलते थे। उस समय होली पर लाल व हरा दो रंग का गुलाल आता था। पानी में मिलाने के कई रंग आते थे। पिचकारी पीतल की व फुब्बारे वाली चलती थी। प्लास्टिक की भुट्टे के आकार की बोतल वाली पिचकारी चलती थी। बाल्टी और गिलासों में रंग भर भरकर होली खेलने वालों पर फेंका जाता था। टेशू और प्लास के फूलों से केसरिया पीला रंग बनाया जाता था। होली खेलने वाले टोलिया बनाकर एक दूसरे के घर जाकर सड़कों पर होली गाते हुए नाचते हुए जाते थे। और होली का खूब हुड़दंग मचाते जाते थे।
फिर होली खेलने के बाद दोपहर में नहाकर नये नये कपड़े पहनकर होली का मेला देखने जाते थे। जो हनुमान घड़ी पर लगता था। वहाँ पर माँ बाप के और बच्चों के जान पहचान के दोस्त व सहेलियां मिलते थे। मेले से खिलौने लेकर आते थे। होली के मेले में उन दिनों मिट्टी के खिलौनो का प्रचलन था। मैं उनमें से हाथी, कुत्ता लाती थी। जिनकी पीठ में लम्बा सा छेद होता था। ये खिलोने गुल्लक का काम करते थे। तोता, चिड़िया इन खिलौनों की पूंछ पर छेद होता था जिनसे बच्चे सीटी बजाते थे। हमारे यहाँ होली का मेला 8 दिन तक अलग अलग जगह लगता था। दूसरे दिन भूतेश्वर मन्दिर, फिर पथवारी, फिर छोटी हनुमान घड़ी, इसी तरह हमारे होली मोहल्ले में बिल्कुल घर के पास में मेला लगता था। उस दिन हम दिनभर कई कई बार मेले में जाकर मेला देखते थे। और मेले में झूला झूलते थे। चाट पकौड़ी खाते थे।
हमारे माता पिता हमको सभी रिश्तेदारों के घर होली मिलने ले जाते थे। बच्चे भी अपने दोस्त व सहेलियों के घर मिलने जाते थे। सब घरों में गुजिया, मठरी, होली की मिठाइयों का खूब सारा नाश्ता कराया जाता था। फिर सब गले मिलकर होली की खूब बधाइयाँ देते थे। और बच्चों को खूब आनंद आता था। घरों में जाकर अपने मिलने वालों के यहाँ गुजिया, पापड़ी, नमकीन सेब, मीठे सेब, इडरसे, चिप्स, पापड़, कुरेरी और दही बड़े, कांजी बड़े आदि खाते थे। ये सब पकवान 15-20 दिन पहले से बनाये जाते थे। घरों में कई दिन पहले से होली तक रोज रंगोली रखी जाती थी। आस पड़ोस के व घर के सदस्य मिलकर होली के गीत गाते थे।
होली के आठ दिन बाद बसौड़ा आता था। जिसको शितलास्टमी भी कहते हैं। इसमें माता पूजी जाती थी। खाना एक दिन पहले रात को बनाकर रख दिया जाता था। और दूसरे दिन मीठे चावल, पुए, पूड़ी, चने की दाल, और जल चढाकर माता की पूजा करके माता पर चढ़ते थे। माता पर शर्बत भी चढ़ाया जाता था। पहले माता के मेले में माता के मंदिर के बाहर भिस्ती मसक से जल छोड़ते थे और पैसे लेते थे। मेले में बच्चों के ऊपर से मुर्गे उड़ाये जाते थे। शितलास्टमी के दिन खूब सारा जल चढाकर माता को ठण्डा किया जाता था। यहाँ-यहाँ होली जलती थी वहाँ पर चौराहों पर जल चढाकर पूड़ी, पुआ, मीठे चावल चढाकर पूजा की जाती थी। बच्चों के गले में मेवे की माला पहनाई जाती थी। कुत्ता व गाय को भी हल्दी छिड़ककर पुजापा खिलाया जाता था। बसोड़े के मेले में भी होली की तरह खिलोने आदि व चाट पकौड़ी की दुकान लगती थी। इस तरह होली का त्यौहार अष्टमी के बाद समाप्त हो जाता था।