“हम भारत के लोग “ और नेताओं के बीच यह अंतर क्यों
लोकतंत्र में देश की प्रजा उसका शरीर होती है
लोकतंत्र उसकी आत्मा जबकि लोगों के लिए , लोगों के ही द्वारा चुनी गई सरकार उस देश का मस्तिष्क होता है उसकी बुद्धि होती है ।
यह लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार ही देश की विश्व में दिशा और दशा तय करती है ।
यह एक अनुत्तरित प्रश्न है कि हमारी आज तक की सरकारों ने लोकतंत्र की इस परिभाषा और उसके मकसद को किस हद तक पूरा किया है ।
सरकार और उसके पदाधिकारियों ने जो कि देश के मस्तिष्क का प्रतिनिधित्व करते हैं आजादी के बाद से ही देश के भविष्य को ताक पर रखकर स्वयं अपना भविष्य संवारने का कार्य किया परिणाम स्वरूप आज सम्पूर्ण सरकारी मशीनरी सवालों के घेरे में है ।
2014 में माननीय नरेन्द्र मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से उन्होंने सम्पूर्ण देश में एक बदलाव की पहल की। शुरुआत स्वच्छता अभियान शौचालयों निर्माण जैसे कदमों से हुई । इस देश के भौतिक स्वरूप की सफाई के बाद अब उसकी आत्मा और उसके मस्तिष्क की सफाई की बारी है ।अब उस लोकतंत्र की जड़ों की सफाई होनी चाहिए जिसमें चुनावों में जातीय गणित और काले धन की दीमक लग चुकी है।
उस सरकार रूपी मस्तिष्क की सफाई होनी चाहिए जो घोटालों के बोझ तले दब चुकी है।
भ्रष्टाचार एवं काले धन पर प्रहार करने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री ने जब 8 नवम्बर को नोट बंदी की घोषणा की तो देश की जनता ने उनके इस निर्णय का स्वागत किया । पूरे देश में आम आदमी को एक आस बन्धी कि शायद काला धन और भ्रष्टाचार ,जो इस देश के साथ साथ आम आदमी के जीवन को भी दीमक की तरह खाए जा रहे थे ,अब खत्म होगा । पूरी सहनशीलता के साथ इस देश के हर नागरिक ने काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ इस आंदोलन में अपना सहयोग दिया लेकिन जैसे जैसे दिन निकलते जा रहे हैं वैसे वैसे वह अपने आप को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा है ।
उसे 'आम, द मैंगो पीपल ' और 'ख़ास , द वी आई पी ' के बीच का अंतर एक बार फिर समझ में आने लगा ।
उसे जनता और नेता के बीच का अंतर एक बार फिर समझ में आने लगा
उसे व्यपारी और ब्यूरोक्रे्ट्स में अंतर समझ में आने लगा
उसे सिस्टम के अन्दर और सिस्टम के बाहर होने का अंतर समझ में आने लगा
उसे ' कानून से बड़ा कोई नहीं है ' इस बात का व्यवहारिक अर्थ समझ में आने लगा
उसे 'काले धन ' का 'अर्थ ' भी अब शायद समझ में आने लगा है वह समझता था कि काला धन केवल वो पैसा नहीं है जो एक व्यापारी टैक्स के रुप में बचाता है , उसकी नज़र में तो काले धन का यह एक छोटा सा हिस्सा मात्र था । वो यह नहीं समझ पा रहा कि जो पैसा वो सरकारी विभागों में घूस देने के बाद अपनी व्यापार में से टैक्स के रूप में बचा रहा था उससे आतंकवाद कैसे पनप सकता है क्योंकि प्रधानमंत्री ने तो कहा था कि काले धन का उपयोग देश के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों में प्रयोग होता है वह आदमी जो लाइन में खड़ा भ्रष्टाचार खत्म होने की आशा में था वह तो छोटी मोटी टैक्स की चोरी जरूर करता था लेकिन आतंकवाद का मददगार तो कभी नहीं था । वह यह तो समझ पा रहा है कि सबकुछ डीजिटल हो जाने से एवं कैशलैस इकोनोमी से व्यापार में पारदर्शिता आ जाएगी लेकिन क्या इससे देश में व्याप्त पूरा भ्रष्टाचार और काला धन खत्म हो जाएगा ?
इसका मतलब काला धन केवल देश के व्यापारियों की वजह से था ? और भ्रष्टाचार !
उसे भी यही व्यापारी करता था जबरदस्ती घूस दे देकर ?
इस देश को आज भी सरकार और उसकी मशीनरी के कामों में पारदर्शिता का इंतजार है।
कितना हास्यास्पद है कि 8 नवंबर से लेकर आज तक देश में काले धन और भ्रष्टाचार पर वार करने के उद्देश्य से उठाए गए कदम केवल और केवल आम आदमी से टैक्स वसूली को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं चाहे वो कैशलैस का कान्सेप्ट हो या फिर बैंकों में रकम जमा करना हो । उसमें भी कानून का पालन केवल छोटे कारोबारियों या फिर छोटी नौकरी करने वाले लोगों तक सीमित है क्योंकि बड़े बड़े व्यापारी या फिर औद्योगिक घराने अथवा कारपोरेट हाउस और ब्यूरोक्रेट्स का काला धन तो स्वयं बैंक वाले ही सफेद कर चुके हैं । रही बात नेताओं की , तो राजनैतिक पार्टियों को आयकर अधिनियम 1961 की धारा 13 ए के तहत न सिर्फ आयकर से छूट प्राप्त है बल्कि चंदा लेने की कोई सीमा नहीं है और आज की स्थिति में भी उनके लिए अपने एकाउंट में पैसा जमा करने की भी कोई लिमिट नहीं है और न ही उनसे कोई पूछताछ की जाएगी जबकि एक आम आदमी के खाते में 2.5 लाख से अधिक की हर रकम का उसे जवाब देना होगा। राजनैतिक दल तो ऐसी किसी जवाबदेही की सीमा में ही नहीं है क्योंकि वे आरटीआई के दायरे में ही नहीं हैं ।
हमारे संविधान की शुरुआत , " हम भारत के लोग " से होती है और उसमें इस देश के हर नागरिक के लिए समान कानून हैं और कानून से ऊपर कोई नहीं है तो फिर हमारे राजनेता और उनके दल इस देश के कानून से ऊपर कैसे हो सकते हैं । आयकर छूट के लिए राजनैतिक दलों को भारतीय लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 29 ए के तहत रजिस्टर्ड होना ज़रूरी है । कोई आश्चर्य नहीं कि भारत में 1900 से अधिक राजनैतिक दल पंजीकृत हैं जिसमें से 400 ने आज तक कोई चुनाव नहीं लड़ा है।
और वैसे भी किस कानून की बात करते हैं " हम भारत के लोग " ? वो कानून जो 8 नवंबर के बाद बैंक वालों की मिली भगत से तोड़े गए ! या फिर उस कानून की जिसको संसद में हमारे ही द्वारा चुने गए सांसद संविधान में संशोधन करा के राजनैतिक पार्टियों को तरह तरह की छूट दिलवाते हैं ! या फिर वो कानून जिन्हें पैसे वालों के हाथों की कठपुतली बनते आज तक देखते आया है यह देश !
भ्रष्टाचार हमारे देश में आज कोई समस्या नहीं वरन् स्वयं सिस्टम बन चुका है क्या हमारे प्रधानमंत्री जो कि संघ के एक मामूली कार्यकर्ता से यहाँ तक पहुँचे हैं इस तथ्य से नावाकिफ हैं कि भ्रष्टाचार किस हद तक सिस्टम में शामिल हो चुका है ?
आज जब पूरे देश के सामने बैंक अधिकारियों द्वारा करोड़ों के काले धन को सफेद करने के रोज नए मामले सामने आ रहे हैं तो इस देश का आम आदमी क्या समझे या फिर वह अपने आप को क्या समझाए ? अगर प्रधानमंत्री की नोट बंदी की नीयत सही थी तो आज देश का आम आदमी उस भ्रष्टाचार रूपी दानव पर प्रहार चाहता है जिसने अपनी शक्ति बैंकों में दिखाई , वह उस काले धन पर वार चाहता है जो इस देश के एक छोटे से छोटे सरकारी बाबू तक के पास से मिलता है किसी राज्य के मुख्य सचिव की बात तो छोड़ ही दीजिए।
वह उस काले धन पर वार चाहता है जो इस देश के नेताओं और उनकी राजनैतिक पार्टियों के पास है। जब तक सरकार बनाने वाले नेताओं को इस आंदोलन से मुक्त रखा जाएगा जब तक सरकार के नौकरशाहों को सिस्टम के भीतर रहने के कारण कानून से खेल ने की छूट दी जाएगी इस देश से भ्रष्टाचार और काला धन खत्म करने की बात एक बार फिर इस देश की भोली भाली जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ के अलावा और कुछ नहीं होगा ।
जब तक इस देश की आत्मा ( चुनाव) और उसके मस्तिष्क ( सरकार और उसकी मशीनरी) की सफाई नहीं होगी केवल शरीर ( देश की जनता) को साफ करने से कुछ नहीं होगा। क्योंकि प्रधानमंत्री शायद इतना तो समझते ही होंगे कि जब शरीर मस्तिष्क के आदेश मानने से मना करता देता है तो उस अवस्था को पक्षाघात अथवा पैरेलिसिस कहते हैं एक प्रकार का विद्रोह जो कि घातक सिद्ध होता है । तो बिना आत्मा और मस्तिष्क की सफाई के केवल बाहरी शरीर की सफाई करके इस देश की जनता जिसने अभी तक सहनशीलता का परिचय दिया है उससे आखिर इस सहनशीलता की अपेक्षा आखिर कब तक ?
डॉ नीलम महेंद्र