क्या यह प्रधानमंत्री पद की गरिमा का अपमान नहीं है
वर्तमान में चल रहे संसद के शीतकालीन सत्र में भारतीय लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी द्वारा माफी की मांग पर सदन की कार्यवाही में लगातार बाधा डालने का काम कर रही है। वैसे ऐसा पहली बार नहीं है कि कांग्रेस के द्वारा संसद की कार्यवाही ऐसे मुद्दों के लिए बाधित की जा रही हो जिनका देश से कोई लेना देना नहीं हो।
इससे पहले भी वह कई देशहित से परे स्वार्थ की राजनीति से प्रेरित मुद्दे उठाकर संसद सत्र को ठप्प करने का काम कर चुकी है। चाहे नैशनल हेराल्ड का मामला हो, या फिर सुषमा स्वराज द्वारा ललित मोदी की कथित मदद का मुद्दा हो, अथवा मोदी द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर उनका "बाथरूम में रेनकोट पहन कर नहाने" वाला बयान हो। ताजा हंगामा गुजरात चुनाव के दौरान पाक के एक पूर्व मंत्री और कुछ पूर्व भारतीय राजनयिक के साथ मणिशंकर अय्यर द्वारा आयोजित रात्रि भोज में देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के शामिल होने पर दिया गया उनके बयान को लेकर किया जा रहा है। और इन परिस्थितियों में जब काँग्रेस प्रधानमंत्री पद की गरिमा की बात करती है तो वह भूल जाती है कि इस पद की गरिमा का जितना अपमान खुद उसके द्वारा हुआ उतना आजाद भारत के इतिहास में शायद पहले कभी नहीं हुआ।
आश्चर्य तो यह है कि स्वयं मनमोहन सिंह को जिस "मान सम्मान" का बोध विपक्ष में रहते हुए हुआ उसका एहसास या फिर उसके ‘अभाव का एहसास’ वो प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए कभी क्यों नहीं कर पाए। शायद इसलिए कि वे काँग्रेस और गाँधी परिवार को ही भारत समझने की भूल करते आए हैं और अपनी निष्ठा का दायरा इस परिवार से परे कभी बढ़ा नहीं पाए। नहीं तो क्या वजह है कि जो व्यक्ति आज उनके एक मीटिंग में शामिल होने के प्रधानमंत्री के वक्तव्य से "आहत" है उसने इससे पहले स्वयं को कभी "अपमानित" भी महसूस नहीं किया?
और प्रधानमंत्री पद की गरिमा का प्रश्न काँग्रेस या फिर स्वयं उनके समक्ष इससे पहले कभी क्यों उत्पन्न नहीं हुआ?
न तब जब 2004 में प्रधानमंत्री का पद ग्रहण करने के तुरंत बाद सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाते हुए उस नैशनल एडवाइजरी काउंसिल का गठन किया गया जिसके पास केंद्रीय मंत्रिमंडल के समान अधिकार थे।
न तब जब 2005 में मनमोहन सिंह ने पूरे देश के प्रधानमंत्री होते हुए भी लाल किले से अपने सम्बोधन में कहा था कि इस देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है।
न तब जब 2006 में उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री होते हुए कहा था कि पाकिस्तान भी भारत की ही तरह "आतंकवाद का शिकार है"। न तब जब 2013 में भरे पत्रकार सम्मेलन में राहुल गाँधी ने मनमोहन सरकार का एक अध्यादेश फाड़ दिया था।
न तब जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भारतीय पत्रकारों के सामने उन्हें देहाती औरत कहा था।
न ही तब जब देश में एक के बाद एक घोटालों का पर्दाफाश हो रहा था।
आश्चर्य का विषय है कि पूरे चुनाव प्रचार के दौरान जो काँग्रेस प्रधानमंत्री मोदी पर चुनावों के मद्देनजर संसद के शीतकालीन सत्र को देर से शुरू करने को लेकर निशाना साधती रही ( यह भुलाकर कि उसके कार्यकाल में भी पहले 2008 और फिर 2011 में संसद के सत्र टाले गए थे) आज सत्र चलने ही नहीं दे रही। इसके अलावा यह बात भी समझ से परे है कि प्रधानमंत्री के पद की गरिमा की दुहाई देकर जब एक प्रधानमंत्री से ही माफी की मांग उनके द्वारा की जा रही है तो क्या उस प्रधानमंत्री पद की गरिमा नहीं गिराई जा रही? वैसे बात तो यह भी देश के गले नहीं उतर रही, जैसा कि उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने कहा कि जो बयान सदन के बाहर दिया गया उसकी माफी की मांग सदन में करना कहाँ तक उचित है।
आज जो काँग्रेस प्रधानमंत्री पद की गरिमा की बात कर रही है उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि उसने सबसे पहले ऐसी किसी मीटिंग से ही इंकार करके देश को गुमराह करने की नाकाम कोशिश की थी लेकिन मीडिया में खबरें आने के बाद मजबूरन स्वीकार करना पड़ा। सोचने वाली बात यह है कि इस कथित "भोज" को "ऐसी कोई मीटिंग नहीं हुई, और यह केवल प्रधानमंत्री मोदी के दिमाग की उपज है लोगों को गुमराह करके चुनाव में फायदा उठाने के उद्देश्य से", ऐसा कहकर उसे गोपनीय रखने की सर्वप्रथम कोशिशें तो कांग्रेस की ही तरफ से की गईं लेकिन अगले ही दिन अखबार में पूरी खबर छप जाने के बाद उसे स्वीकार करना अपने आप में बहुत कुछ कहता है। प्रश्न तो यह भी उठता है कि जिस "भोज" में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व सेनाध्यक्ष, पूर्व विदेश मंत्री, कई पूर्व राजनयिक, पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी के साथ पाकिस्तान की मुशर्रफ सरकार के पूर्व विदेश मंत्री मौजूद हो, वो एक "साधारण भोज" हो भी कैसे सकता है? माना कि खुर्शीद कसूरी (पूर्व पाक विदेश मंत्री) मणिशंकर के पुराने दोस्त हैं लेकिन उन्हें अकेले ही अपने घर भोजन पर बुलाकर अपनी दोस्ती की पुरानी यादें ताजा करके इसे पूर्ण रूप से एक व्यक्तिगत मिलन न रखते हुए पूर्व राजनयिकों, सेनाध्यक्ष और प्रधानमंत्री जैसे व्यक्तित्व बुलाकर इसे राजनैतिक रंग तो उन्हीं की ओर से दिया गया। प्रश्न तो यह भी है कि " दोस्ती" के नाते ही इस प्रकार का आयोजन किया गया था तो फिर जनरल कपूर की ओर से क्यों कहा गया कि मीटिंग के दौरान भारत पाक रिश्तों पर बात हुई थी गुजरात चुनाव पर नहीं?
तो अब मुद्दा यह है कि क्या ऐसे नाजुक विषय पर पाक के (भूतपूर्व ही सही) मंत्री पद के व्यक्ति से बात करने का औचित्य (और नीयत) वे समझा पाएंगे? वो भी तब जब सोशल मीडिया में मणिशंकर का पाकिस्तान में "मोदी को हटवाने" वाला वीडियो वाइरल हो रहा हो। काँग्रेस इस समय वाकई बुरे दौर से गुजर रही है, क्योंकि वो समझ ही नहीं पा रही कि प्रधानमंत्री के जिस बयान पर गुजरात की जनता अपनी मुहर लगा चुकी है, उसी बयान के लिए मोदी से माफी की मांग करना कांग्रेस के लिए एक और घाटे का सौदा ही सिद्ध होगी। अपनी इन हरकतों से काँग्रेस लगातार अपने पतन की ओर अग्रसर है। इसलिए नहीं कि वो लगातार चुनाव हार रही है बल्कि इसलिए कि वो यह समझ नहीं पा रही कि वो बार बार देश की जनता के द्वारा क्यों नकारी जा रही है।
इसलिए नहीं कि मोदी देश को अपने "जुमलों" से बहका रहे हैं जैसा कि वो समझ रही है बल्कि इसलिए कि वे देश के सामने स्वयं को मोदी के विकल्प के रूप में नहीं पेश ही कर पा रही। इसलिए नहीं कि वो अपनी पूरी ताकत मोदी की इमेज बिगाड़ने में लगा रही हैं बल्कि इसलिए कि वो अपनी इमेज सुधारने की दिशा में कोई कदम ही नहीं उठा रही । इसलिए कि वो लगातार नकारात्मक प्रतिक्रियाएँ देकर सकारात्मक परिणामों की आकांक्षा कर रही है। इसलिए कांग्रेस के लिए बेहतर होगा कि वह भूतपूर्व प्रधानमंत्री के पद की गरिमा के बजाय एक समझदार और जागरूक विपक्ष की अपनी गरिमा पर ज्यादा ध्यान दे।
डाँ नीलम महेंद्र