अनगिनत परछाइयों के मध्य में ,
घिर चुका है आजकल का आदमीं
आग तो है ;
पिघला हुआ लावा!
पानी है मगर भाप
प्यास है लेकिन अनबुझ सी है;
शोर है मगर सन्नाटे का!
रात है काली घनी अँधेरी
प्रकाश है मगर जुगनुओं का
पैर हैं मगर धरातल नहीं
पथ है पथिक भी
अंतहीन!
कोई मंजिल नहीं
ना सम्बन्ध और न ही संपर्क;
गति है प्रगति नहीं,
क्षति है पूर्ति नहीं
धर्म है धारणा नहीं है
सत् है सृष्टि नहीं
सृजन की संभावना भी नष्ट!
कल है कल
बहुत ब्याकुल
व्यग्र विकराल भयानक और डरावना भी !
मनुजता है लेकिन विकृत है
निरुत्तर है मौन भी पर स्वीकृति नहीं..
ना गति है और ना ही सद्द्गति
बस यूँ ही है भर्मित है अदामीं!!!