"टूटकर जब भी, संभलता आदमी"
टूटकर जब भी, संभलता आदमी ,और भी ज्यादा ,निखरता आदमी ।मंजिलों के बाद भी, जो रास्ते हैं ,उनसे भी आगे, निकलता आदमी ।तोड़कर चट्टान,जब दरिया चला ,देख!सागर सा,पिघलता आदमी|है इरादों की बहुत, लम्बी उड़ान ,जीतकर अक्सर,गुजरता आदमी|मिल गई ,बुझते चिरागों को हवा,लो रौशनी लेकर,चहकता आदमी|बंद दरबाजों पे,दस्तक फिर हु