(E-Book)
ISBN- N. -978-93-5321-564-4
(
पुस्तक प्रकृति- पदार्थ विज्ञान )
चैतन्य पदार्थ
नफे सिंह
कादयान
(प्रथम
संस्करण वर्ष- printe 2013, द्वितीय- 2018)
सम्पादको, मीडिया एवंम् समीक्षकों हेतू हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा (वर्ष-2017)
श्रेष्ठ कृति पुरस्कार से सम्मानित पुस्तक ‘चैतन्य पदार्थ’ का अति संक्षिप्त परिचय-
प्रस्तुत पुस्तक मे जीवों
की चेतना व पदार्थ का अवलोकन करते हुए मानवजन्य दहन क्रियाओं से जैव श्रृंखलाओं पर
पड़ रहे दुष्प्रभावों से निपटने के उपायों पर पर विचार किया गया है। मेरा मानना है
कि-
1- सभी जीवों के शरीर ऐसी सजीव स्वतंत्र कोशिकाओं के निवास हैं
जिनका अपने शारीरिक ढांचे पर पूर्ण नियंत्रण होता है। ये कोशिकाएँ अपनी संयुक्त
शक्ति द्वारा अपने सूक्ष्म जैव चक्र की निरंतरता बनाए रखने के लिए चेतना (आत्मा)
को प्रदिप्त करती हैं। आत्मा कोई शरीर बदलने वाली या तथाकथित स्वर्ग-नरक, जन्नत-दोजख
में आवागमन करने वाली वस्तु नही है जैसा की विभिन्न धर्माधिकारी
बतलाते हैं।
2- जैव कोशिकाएँ अपने आकार के हिसाब से चैतन्य होती हैं। किसी भी जीव की चैतन्य
शक्ति का प्रदिप्न वेग उसके शारीरिक ढांचे की समस्त कोशिकाओं की संयुक्त शक्ति पर
निर्भर करती है।
3- चेतना अलग-अलग प्राणी श्रृंखलाओं मे आदिकाल से ही बीज रूपी इकाई (स्पर्म) के
माध्यम से सूक्ष्म रूप मे निरंतरता बनाए हुए है। जिस चेतना को अधिकतर लोग अजर-अमर
मानते हैं वह शारीरिक ढांचे के साथ ही नष्ट हो जाती है।
4- पृथ्वी पर जैव रचनाएँ उस आदि परिवर्तन चक्र का एक हिस्सा हैं जिसमें दहन
क्रियाओं के कारण समस्त पदार्थ फैलता जा रहा है। इस क्रिया में पदार्थ अपना
संयुक्त आबंध त्याग कर विरलता की और अग्रसर होता है। ऐसे ही सभी जीवों की उत्पति
एवं क्रियाशीलता में भी पदार्थीय विघटन चक्र चलता है।
5- पदार्थीय परिवर्तन चक्र को धनात्मक व ऋणात्मक शक्तियां चलाती हैं, इन्ही से
आदि में महाविषफोट हो ग्रह-नक्षत्रों का जन्म हुआ और ये ही जैव कारकों की जन्मदाता
हैं।
6- दो अणुओं के बीच की वह संयुक्त ऊर्जा शक्ति जिससे वह आबंधित रहते हैं उसे हम
एक ऊर्जा इकाई मान सकते हैं। इस प्रकार पृथ्वी के कुल अणुओं की संयुक्त ऊर्जा
शक्ति उसका कुल बल है। अर्थात यह वह ऊर्जा बल है जो समस्त अणुओ को ठोसीय रूप मे झकड़े हुए है। ये ही शक्ति
गुरूत्वाकषर्ण शक्ति है।
7- पृथ्वी का आकर्षण बल उसके आंतरिक न्यून बिंदू से बाहरी बिंदू की तरफ न्यूनतम
से अधिकतम क्रम पर चलायमान है। अर्थात पृथ्वी के क्रोड पर शून्य गुरूत्वाकर्षण है
और जैसे-जैसे पर्पटी की तरफ पदार्थ की मोटाई होती जाती है आकर्षण बल उसी हिसाब से
बड़ता जाता है। ये इसलिए है कि यह क्रोड से ही शुरू होती है और इसका आंतरिक बिंदू
बिल्कुल ऐसा है जैसे कोई गेंद अंतरिक्ष मे चल रही हो।
8- पदार्थ ऊर्जा से संयुक्त अवस्था में रहता है। वह जितनी बार विघटित होता है,
ऊर्जा का ह्रास होता चला जाता है। ऊर्जा एक बार पदार्थ में से निकल जाए तो वह दोबारा उसमें
प्रवेश नही कर सकती। यह प्रकृति का वह आदि से जारी नियम है जिसमे ब्रह्मांड का
सारा पदार्थ फैलता जा रहा है। पदार्थ में से जितनी बार भी ऊर्जा का ह्रास होगा वह विरल होता जाएगा। विघटन चक्र मे ही
वनस्पति पृथ्वी की ऊर्जा का ह्रास कर फलीभूत होती है। चेतन जीव ऊर्जा के रूप मे
वनस्पतिक ऊर्जा का ह्रास करते हैं। इस प्रकार सभी जैव-अजैव कारक फैलाव क्रिया में
भागीदार बने हुए हैं।
9- पृथ्वी के उत्पत्ति काल से ही उसमे निरंतर ऊर्जा का ह्रास हो रहा है। न्यून
ऊर्जा दहन बिंदू ठोस पदार्थ के ठीक नीचे है जो आंतरिक क्रोड की तरफ चलायमान है।
ऊर्जा के ह्रास से लावा चट्टानो मे बदलता जा रहा है। एक काल अवधी बाद क्रोड तक
लावा जमने पर चट्टानों में हजारों किलोमीटर गहराई तक दरारें पड़ जाएंगी जिससे
पृथ्वी का सारा जल क्रोड के आसपास एकत्र
हो जायेगा क्योंकि ऊर्जा ही पानी को सतह पर रोके हुए है। मेरा मानना है कि मंगल
जैसे अर्धमृत ग्रहों के क्रोड के आसपास विशाल जल भंडार हो सकता है।
10-पृथ्वी का मध्य क्षेत्र इतना बड़ा सघन पदार्थीय ऊर्जा भण्डार है जिसके दस
ग्राम पदार्थ में इतनी ऊर्जा हो सकती है जो लगभग दस हजार लिटर पैट्रोल के बराबर
हो।
11- मानव के सभी अविष्कार ऊर्जा दहन पर आधारित हैं। उसकी सभी मशीनों, कल कारखानों
मे ऊर्जा दहन होता है। मानवजन्य दहन क्रियाओं में वनस्पतिक ऊर्जा अर्थात ऑक्सीजन
का व्यापक स्तर पर ह्रास होता है। मानव सहित सभी प्राणी वनस्पतिक ऊर्जा से जीवित
हैं। वह वनस्पति खाते हैं, उससे ही सांस लेने के लिए ऑक्सीजन लेते हैं। पृथ्वी पर
अधिक से अधिक वनस्पति उगाए रखना ही प्राणी हित में है। इसका जितना अधिक दोहन होगा
प्राणी श्रृंखलाओं की उतनी ही अधिक क्षति होती चली जाएगी।
12- पदार्थ परमाणुओं के रूप में विभक्त होकर अपनी प्रतिलिपियां बनाता है। परमाणु
मिलकर अणुओं की रचना करते हैं। अणुओं से जैव कोशिकाएँ बनती हैं जो अपने उत्पाद
स्त्रोत की प्रतिलिपियां होती हैं। कोशिकाएँ सघन अवस्था धारण कर मानव ढांचा बनाती
हैं जो कोशिकाओं का संयुक्त रूप होता है जिसमें वह निर्जीव पदार्थ से शुरू हुई दहन
श्रृंखला का कार्य आगे बड़ाता है, अर्थात जैव श्रृंखला के माध्यम से पदार्थ
विभिन्न प्रकार की ऊर्जा दहकजन्य रचनाएँ बनाता हुआ सघन अवस्था त्याग कर विरलता की
और गति करता है। इसी क्रम में मानव मशीनों के रूप में अपनी ऊर्जा दहनजन्य
प्रतिलिपी बनाता है।
13- पृथ्वी पर दिन-रात, समय, काल गणना जैसे शब्द भ्रम पैदा करते
हैं क्योंकि चेतना प्रकाश की उपस्थिति में देखती है। अगर वह अन्धकार की उपस्थिति
में देखती व प्रकाश में कुछ दिखाई न देता तो दिन-रात ही उल्टे हो जाते। काल गणना
का आशय है कि मानव चेतना बुद्घि के माध्यम से अपने शरीर की गणना करने की चैष्टा
करती है। मानव समय की गणना मृत्यु बिन्दू को आधार बना कर करता है। कितने अर्से बाद
व्यक्ति की मृत्यु होगी इसी को आधार बना कर काल गणना की गई है, इसलिए समय को
टुकड़ों में बांट दिया गया है। बुद्घि मन को सन्देश देती है कि शरीर नष्ट होने में
बहुत समय है। पहले दिन-महीने गुजरेंगे फिर वर्ष बीतते जाएंगे। अनेक वर्षो बाद शरीर
नष्ट होगा मगर फिर भी चिन्ता की कोई बात नही है, शरीर नष्ट होने के बाद नया शरीर
मिल जाएगा।
14- मानवजन्य
दहन क्रियाओं व बड़ती जनसंख्या पर नियंत्रण कर, अव्यवस्थित रूप से फैल रही
कालोनियों के निवासियों को बहुमंजिली इमारतों मे बसा कर, मैदानी इलाकों मे धारा
रेखीये सड़के बना कर, नदियों को जोड़ उनके पानियों का बेहतर उपयोग कर, माल ढुलाई
व्यवस्थित तरीके से कर के व अधिक से अधिक वनस्पति उगा कर पृथ्वी पर प्राणी
श्रृंखलाओ को विलुप्त होने से बचाया जा सकता है।
पुस्तक मे उपरोक्त सभी बिंदूओं पर विस्तार से विचार किया
गया है।
नफे सिंह कादयान, गगनपुर (अम्बाला)
बराड़ा-133201 मो.-9991809577
( हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से
प्रकाशित, वर्ष- 2013)