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छत

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पिछले मोहल्ले में अमरावती को अपनी कुबुद्धि के इस्तेमाल के लिए बहुत बड़ा साम्राज्य था यानि मोहल्ले की बहुत सी औरतें और बहुत से परिवार | पर नया मकान ऐसे मोहल्ले में था जहाँ अमरावती के लिए दूसरे परिवारों

समय अपनी रफ़्तार में था और देखते-देखते 3-4  बीत गए, पिछले 3-4  सालों से राधा मिश्रा अमरावती के बच्चों को पूरी लगन से ट्यूशन पढ़ाती रही और अमरावती ईष्या और जलन के स्वाभाव के कारण पूरी लगन से&nb

अमरावती का ध्यान घर और बच्चों में बिलकुल नहीं रहता था  और इस बात की गवाही घर खुद चीख-चीख कर दे रहा था | कभी कोई चीज़ उसकी सही जगह पर नहीं होती थी और ज्यादातर घर अस्त-व्यस्त ही होता था। कभी-कभी तो

खड़ी है दिवारें बिन छत के हैं घर । रात अंधेरी सुबह की तलाश में है घर। नींव गहरी, टूटा फर्श बेहतर अर्श के इंतजार में है। दो कच्चे कांधे, दो दीह का बोझ संभाले, ढूंढते हैं संग दिल वर, जहां मिलें उन्हें खुशियों भरा कल। बेचैन रातें, टूटी नींद मां को सोने नहीं देती, ज़मीन कोरी, खुला आसमान छाया नहीं छत की

"छड़, मकान और छत"ठिठुर रहा है देश, ठिठुर रहें हैं खेत, ठंड की चपेट में पशु-पंछी, नदी, तालाब और अब महासागर भी जमने लगे हैं अपने खारे पानी को उछालते हुए, लहरों को समेटते हुए। शायद यही कुदरत की शक्ति है जिसे इंसान मानता तो है पर गाँठता नहीं। आज वह बौना बना हुआ है और काँप रहा है अपनी अकड़ लिए पर झुकने को

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