उसके दुख का कारण मैं नही उसकी ख़्वाहिशें थी,
जो उसने मेरे कद से ज्यादा बना ली थी।।
मैं पहुँचने वाला, बमुश्किल से शाक तक,उसने चाहत,दरख्त की अंतिम छोर बता दी थी।।
बहुत मुश्किल से मैं चादर मे आता था,
और ,उसने पैर बांहें सब ही तो फैला दी थी।।
यह कर रही थी अजमाइश वो मेरी इंतिहा की ,
या मुड़ने की कसम ही उसने खा ली थी।।
शरारत उसके रवैए की यह मंहगी रही,,
पर कीमत उसने मुझसे यही बता दी थी।।
जब मुड़ा भी था,मैं वापिस,जाने को होकर, बेकदर,
पछताएगी, दिल को दिल ने मेरे यहीं सलाह दी थी।।
हैरां था देख कर शौकीनियां उसकी,उम्र भर,की,कीमत देख कर,
कीमत थी वही सच्ची,जो उसने अपनी लगा ली थी।।
याद आता है पीछे का तमाम वो बोझिल सा,सफर,
और वो "छटपटाहट," जो मैंने रह संग उसके बिता दी थी।।
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संदीप शर्मा।।