है समाज का इक दबका,
बिखरा है जो कतरा कतरा,
जीवित है जीवंत वजूद,
पर प्रकृति ऐसी कि हुआ मजबूर।।
जी कहती कहता का प्रश्न है,
हो जन्म तो मनाते न जश्न है,
विडम्बना क्रूर ने किया मजाक,
न स्त्री न पुरुष, बस आधी आधी श्वास।।
कितने स्वप्न धूमिल हो मर गए,
ताली की बस थाप कुचल गए,
ईश्वर क्यू हो गया मगरूर,
जबकि दिखता नही कसूर।।
हँसी का पात्र, किन्नर हर छात्र,
भद्दी निगाह से देखे समाज शास्त्र,
भेद के विभेद को समझना होगा,
मन की कोमलता को बरसना होगा।।
यह है जीव,और फिर संजीव,
फिर क्यू है दृष्टि, जो रखती न धीर,
क्या यह सिर्फ बधाई के लिए है,?,
दुख इनके यहा कौन सिए है।।
जरा आकर तो देखो इनके करीब,
पूछना इनका कैसा नसीब,
अलग थलग हुए समाज से
मांगते जो आत्म विश्वास ये।।
हुई तो है अधिकार की बात,
पर सम्मति सहमति थोड़ी अविश्वास
मजबूरी दयनीय देह रही है,
हीन सदा ही श्रेय से रही है।।
चाहते सहानुभूती किंचित वे न है,
चाहते स्वीकृति का दर्जा बस सा है,
न चाहते बनना दया के पात्र
स्वीकार्य हो उनका भी आसन्न
है विडम्बना समाज की ऐसे,
चलते पता आस्तित्व का,बहिष्कृत किए जाते ,क्रूरता अपनो की आप सहे है ,
और बस मे भी कुछ न, कया कहे है।।
बल है सबल पर दृष्टि हेय है,
सामाजिक अस्वीकार्य की वजह से ये है,
समझे इनके भी मन की बात,
तो हो कुछ, खास सी खास ही बात।।
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मौलिक रचनाकार,
।। संदीप शर्मा।।
यह एक खास फैन के अनुरोध पर,रचना लिखी है,जो मुझे समाज का आईना बन लिखने को कह रहा.है।।मैं उनके दुख से पूर्णतः अनभिज्ञ हूँ पर कोशिश की है कि एक बात उनकी भी हो।जो आवश्यक है।समाज का अंग है।।व जिन्हे नकारा नही जा सकता।।
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यह संवेदनशील विषय है।
उतना आसान नही है थाह पाना।।
जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण।