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चुनावी हार

21 मार्च 2022

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जितने जीत के कारक हैं, उतनी हार की भी अपनी वजहें हैं। अगर नैतिक/अनैतिक दृष्टि से न देखा जाय, (क्योंकि शुचितापूर्ण राजनीतिक व्यवहार के प्रश्न पर लगभग सभी पार्टियां सवालों के घेरे में हैं, बस कोई कम तो कोई ज्यादा) तो भाजपा ने अपने हर काम को अच्छे से भुना लिया है और अपनी विफलताओं को वह यवनिका के पीछे धकेलने में पूरी तरह कामयाब रही। चुनाव में तात्कालिक लाभ की इच्छा स्थायी दुर्व्यवस्थाओं/समस्याओं पर भारी पड़ी।

ख़ैर, यह उस विशेष पार्टी का अपना कौशल है और फिर अधिकांश मीडिया चैनलों के खुले सहयोग को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। बसपा का अप्रत्यक्ष सहयोग भी भाजपा की जीत में अहम कारक रहा। यहाँ ध्यान रहे कि मायावती ने 122 सीटों पर उन्हीं जातियों से अपने उम्मीदवार उतारे जिन जातियों से सपा के उम्मीदवार ताल्लुक रखते थे। क्या यह महज संयोग है? मायावती का पूरे चुनावी प्रचार से लगभग खुद को अलग रखने के कुछ तो निहितार्थ रहे होंगे। आखिर बसपा ने स्वेच्छा से अपनी राजनीतिक मृत्यु को क्यों चुना? वजहें जो भी हों, लेकिन बसपा का यह टिकट-वितरण सत्ता को मजबूती दे गया। भाजपा की यहाँ तारीफ करनी होगी कि उसने राजनीतिक समीकरणों को कुशलता से साधा।  उसने सत्ता में रहते हुए सत्ता के प्रति स्वाभाविक विरोध की मनोवृत्ति को भी वोटों में तब्दील कर दिया। 

आवास योजना, शौचालय निर्माण, राशन वितरण और ठीक चुनाव से पहले असीमित योजनाओं/संस्थानों के लोकार्पण (भले ही वे आधे-अधूरे, अधबने हों) के जरिये उसने वोटरों में पैठ बना ली। इसके अलावा प्रायः देखा गया है कि तात्कालिक लाभ, श्रेष्ठतावाद और दीर्घकालिक धार्मिक खतरों  की अवधारणात्मक रणनीतियाँ बहुमत की राह आसान कर देती है !!!

ख़ैर जीत के प्रति जो प्रतिबद्धता भाजपा और सपा में देखने को मिली वह प्रशंसनीय है। इस दृष्टि से राहुल-प्रियंका की मेहनत भी कोई कम उल्लेखनीय नहीं है, बल्कि सच पूछिए तो वह जन मुद्दों को लेकर सर्वाधिक संघर्षशील नेता के रूप में उभरे। वे (राहुल और प्रियंका) हारे हैं, तो प्रत्याशियों के गलत चुनाव पर, जो कि संगठन के कमजोर होने का परिचायक है। उनके नेता जमीनी नहीं हैं। वे प्रवासी पक्षी की तरह चुनावी मौसम में ही नजर आते हैं। राहुल और प्रियंका मुखर और सक्रिय विपक्ष की भूमिका के बावजूद जनता की निगाह में सबसे निचले पायदान पर रहे। उनकी पार्टी का मत प्रतिशत मात्र 2.33 तक सीमित रह जाना बताता है कि वे रणनीति के स्तर बेहद कमजोर हैं। वह अपनी गलतियों से हारे। कांग्रेस ने यद्यपि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं पर बेबाकी से अपनी राय रखी और अपने तर्को से सत्ता पक्ष को बहुत बार विचलित किया पर वे अपनी बात को जनता में नहीं ले जा पाए। वे वैचारिकी के स्तर पर तो समृद्ध हैं, पर व्यवहारिक स्तर पर उतने ही कमजोर। परस्पर संवाद के जरिये पार्टी में निर्णय लिए जाते तो बात कुछ और होती। यह कार्यकर्ता विहीन पार्टी सी लगी। हार की यह भी एक वजह है।

 इन सब चीजों से इतर इस चुनाव में निर्वाचन आयोग अपनी वह हनक नहीं दिखा सका जिसके लिए वह अतीत में जाना जाता था। तमाम बयानों पर उसके द्वारा संज्ञान लिया जाना चाहिए था, जो नहीं लिया गया। फिर बयान चाहे साइकिल को आतंकवादी टूल बताने का हो या फिर  80 और 20 वाला बयान। कुछ सपा नेताओं द्वारा भी जातिगत उन्मादी बयान दिए गए।

 कहने का मतलब जनप्रतिनिधियों के भाषाई उत्पात को रोकने में निर्वाचन आयोग ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, जिसके चलते बेलगाम जनप्रतिनिधियों ने चुनाव को ध्रुवीकृत करने की पूरी कोशिश की।
जब स्वतंत्र संवैधानिक निकाय भी अपने दायित्व से बेलिहाज हो गलत परंपराओं को मूक समर्थन देंगे तो  यह चिंता का विषय है।

ख़ैर भाजपा की जीत की बधाई के साथ-साथ सपा की हालत पर भी बात करना जरूरी है क्योंकि वही एक पार्टी है जो सत्ता पक्ष के लिए सशक्त चुनौती पेश कर सकती है। तमाम सीटों पर जीत-हार का मार्जिन बहुत कम रहा। यहाँ मामला बिलकुल एकपक्षीय नहीं रहा।
सपा पिछले चुनाव की तुलना में इस बार खासी मजबूत हुई पर वह सरकार बनाने की हद तक आगे न बढ़ सकी।

सपा के प्रति जो जन में एक धारणा बनी है, वह यह कि शासन के स्तर पर उसकी कार्यसंस्कृति ढीली है। वह माफियाओं के प्रति कठोर रवैय्या नहीं अपनाती। अराजकता को प्रश्रय देती है। यद्यपि इस धारणा को अखिलेश ने तोड़ने की भरसक कोशिश की है, तथापि उनके छुटभैया नेताओं के बयानों ने इस चुनाव में पुराने व्यवहार की यादें ताजा की। अखिलेश यादव बेशक अब बहुत सुलझे हुए और परिपक्व नेता हैं। वे खुद बेशक शालीन हैं, पर उन्हें अपने उन कार्यकर्ताओं को शालीनता का पाठ जरूर पढ़ाना होगा जो उनकी पार्टी की छवि को धूमिल करते हैं। नेतृत्व को पूरी जनता का ध्यान रखना चाहिए। एक जाति, वर्ग, सम्प्रदाय का ठप्पा किसीकी भी स्वीकार्यता को सीमित कर देता है। सपा का यादव और मुस्लिम गठजोड़ तक सीमित रह जाना भी पार्टी की संभावनाओं को सीमित करता है। चुनाव में अखिलेश का अपने नेताओं के उच्छृंखल बयानों का संज्ञान न लेना एक तरह से ध्रुवीकरण का सहायक कारक बना। "एक्सिस माई इंडिया" की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट का 82 प्रतिशत और यादव वोट का 83 प्रतिशत सपा को गया है। भई, यह भी तो ध्रुवीकरण ही है।

अखिलेश यादव का दलीय संगठन यद्यपि बहुत मजबूत है तथापि उनकी खुद की छवि संघर्षप्रिय नेता के रूप में नहीं दिखी। पत्रकार वार्ता के जरिये अपनी बात कह देने और सिर्फ कार्यकर्ताओं को ललकार देने से बात नहीं बनने वाली। आप सिर्फ़ रथयात्राओं, बस यात्राओं से ही जनता का वोट हासिल नहीं कर सकते, इसके लिए जनता के मुद्दों को लेकर जनता के बीच उतरना होगा। सपा को एक जाति या सम्प्रदाय विशेष की अपनी स्थापित छवि को तोड़ना होगा। तुष्टिकरण किसी का भी हो दीर्घकालिक राजनीति का हिस्सा नहीं बन सकता। चुनाव सीख लेने के अवसर भी उपलब्ध कराते हैं, बशर्ते आप सीखने के लिए ईमानदार हों।

- संजीव शुक्ल
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होली

20 मार्च 2022
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उन्हें होली में भी लिहाज की दरकार थी........... लाल कर दिए गए😊

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चुनावी हार

21 मार्च 2022
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