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दलबदल एक क्रांतिकारी गतिविधि

21 मार्च 2022

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   इधर भारतीय समाज में दलबदलुओं को कुछ ज़्यादा ही गिरी हुई निगाह से देखा जाने लगा है। राजनीतिक विशेषज्ञों और समाजशास्त्रियों की माने तो "आए दिन थोक भाव में दल बदलने से दलबदल की गरिमा में गिरावट आना स्वाभाविक ही है।" उनके हिसाब से पहले इक्का-दुक्का केस होते थे और वह भी सिद्धांतों की आड़ में, पर अब तो कोई सिद्धांत ही नहीं, जब जिसका मन हुआ पाला बदल लिया।"
विशेषज्ञों की यह राय स्थिति का अति सतही विश्लेषण है। दलबदलुओं को गिरी हुई निगाह से देखे जाने की यह वजह पर्याप्त वजह नहीं। 

दरअसल हमने आज तक दलबदलुओं के व्यक्तित्व-कृतित्व और उनकी परिस्थितियों का सम्यक मूल्यांकन ही नहीं किया। हमने उनके प्रति समाज द्वारा स्थापित राय को बिना विचारे जस का तस स्वीकार कर लिया। निश्चित रूप से यह हमारे दलबदलुओं के साथ ज्यादती है।
हालांकि दलबदलने वालों के चरित्र हनन की यह कोई नई बात नहीं है।  यह तो हमारी सनातनी परम्परा है, जो हमारे लोकजीवन का अभिन्न हिस्सा रही है। यह परंपरा दलबदलुओं के आदि गुरु विभीषण तक जाती है। विभीषण बहुत ही अच्छे आदमी थे। उन्होंने कभी कोई गलत काम नहीं किया। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने भाई के दल से नाता तोड़ शत्रु-पक्ष के रामादल से नाता जोड़ लिया। जिन्होंने कायदे से रामायण पढ़ी है, वो जानते होंगे कि विभीषण ने रावण को कितना समझाया, सिद्धांतों की दुहाई दी; पर सब व्यर्थ! दुष्ट रावण ने एक न सुनी उल्टे विभीषण जी पर पद प्रहार कर सभा से निकाल दिया। वह तो कहिये कि रावण के इस अप्रत्याशित उठाए गए कदम(बल्कि चलाए गए) से कोई ज्यादा चोट नहीं आई; अगर कहीं इस कदमताल से विभीषण की रीढ़ की हड्डी में चोट आ जाती तो उनके तो चलने-फिरने के लाले पड़ जाते। बावजूद इस घोर अपमान के, विभीषण अगर राम के दल में गये तो सिर्फ़ सिद्धांतो की रक्षा के लिए। नारी अस्मिता और सम्मान की रक्षा हेतु वह सीधे राम के पास गए। जाने को तो वह पहले सीता माता को सांत्वना देने अशोक वाटिका भी जा सकते थे, पर अब वह रावण से दुबारा लात खाने के पक्ष में नहीं थे। वह इतिहास में लतखोर नहीं कहलाना चाहते थे। पर समाज ने उनके साथ भी न्याय नहीं किया। देशद्रोही, कुलद्रोही,भ्रातृद्रोही और न जाने क्या-क्या उनको कहा गया........

वही *प्रवत्ति* आज भी कायम है। सामाजिक स्तर पर ही नहीं राजनीतिक स्तर पर भी दलबदल को बहुत हेय दृष्टि से देखा गया। स्वतंत्रता पश्चात हमारी इस सनातनी परम्परा को अमानवीय तरीके से रोकने की तमाम कोशिशें की गईं। संविधान की दसवीं अनुसूची में दलबल को रोकने वाले उपबंध रखे गए। अटल जी के समय दलबदल को और कड़ा किया गया, बस थोड़ी सी राहत जरूर दी गई। अब दलबदल को जायज़ तो ठहराया गया, बशर्ते आप गिरोह के रूप में दलबल करें। सामूहिक रूप से दलबदल को मान्यता देने वाला यह प्रावधान बहुत भेदभावपूर्ण है। इसमें सामूहिक स्वतंत्रता का तो ख़्याल रखा गया पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता उपेक्षित हो गयी।
 भाई एक आदमी भी अगर पार्टी बदलने की इच्छा रखता है तो उसकी भावना को क्यों दबाया जाय? अगर कोई भला आदमी अपने निजी कारणों से अपने नेतृत्व से खुन्नस खाए है तो उसकी पार्टी से वह क्यों अलग नहीं हो सकता? वह क्यों शीर्षस्थ नेतृत्व की पइयाँ-पलोटी करता घूमे? यह तो असन्तुष्ट होने के लोकतांत्रिक चेतना के भी ख़िलाफ़ है। 
दलबदल को रोकना संविधान में दी गई व्यक्ति की उस मौलिक स्वतंत्रता का भी हनन है, जो व्यक्ति को कहीं भी आने-जाने पर रोक लगाने के सख़्त खिलाफ है।

 वस्तुतः दलबदल करने वाले व्यापक दृष्टिकोण के होते हैं। ये दलीय संकीर्णताओं से परे होते हैं। इनके बक्से में सभी पार्टियों के झंडे रखे होते हैं।  "जैसा मौसम हो, मुताबिक उसके मैं दीवाना हूँ" के सम्प्रदाय में दीक्षित ये लोग किसी पार्टी के बंधुआ नहीं। इनका विश्वास है कि पार्टी बदलने से जहाँ विकास के असीमित अवसर हस्तगत होते हैं, वहीं भिन्न विचारधारा के लोगों के सम्मिलन से समाहार संस्कृति विकसित होती है। इसके अलावा दलपरिवर्तन से राजनीतिक गहमागहमी बनी रहती है। एक उत्तेजनात्मक माहौल रहता है। राजनीतिक कयासों को बल मिलता है। विश्लेषकों को नया काम मिलता है।

और फ़िर जो पार्टी सत्ता में हो या जिसके सत्ता में आने की प्रबल संभावना हो उस पार्टी में घुसपैठ कर उस दल के समर्पित कार्यकर्ताओं को पीछे धकेल अगली पंक्ति में जगह बनाते हुए तत्काल अनजाने सिद्धांतों में त्वरित आस्था घोषित कर देना कोई मामूली बात है!! यह अद्भुत कला है!! मौका देख के पार्टी बदलना सबके बस की बात नहीं। दलबदल के लिए इस समय कौन सी पार्टी मुफीद रहेगी इसके लिये हमेशा अपडेट रहना पड़ता है। किस पार्टी में कौन सा ऑफ़र चल रहा है, इसकी जानकारी रखनी पड़ती है। प्रायः मंत्रिपद के ऑफर पर ज्यादा मारामारी रहती है।

 पर दुर्भाग्य से दलबदलुओं के हिस्से में सिर्फ़ और सिर्फ़ आलोचना ही आई.... ...
 दल बदलने वाले की परिस्थितियों को नजरअंदाज करते हुए गद्दार कह देना उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ है।
 चलिए एक बार उसकी भावनाओं का खयाल न भी करिये तो भी उसके पाला बदलने के कौशल की तो तारीफ़ की ही जानी चाहिए। ये इस पल इस पार्टी में तो अगले क्षण दूसरी पार्टी में। ये कब कहाँ हैं पता नहीं लगता, बिलकुल राणा प्रताप के चेतक की भांति "था यहीं रहा अब यहाँ नहीं,
वह वहीं रहा था वहाँ नहीं"। 

   कुछ दलबदलुओं की पाला बदलने की कला ईर्ष्या का विषय बन जाती है। कुछ नेताओं की पत्नियाँ इसी बात पर अपने उनको दुत्कारती हैं कि 'बताओ तुम इतने सालों से उसी पार्टी में धूल फांक रहे हो और अपने नरेश को देखो जिन्हें राजनीति में आए अभी कुछ ही बरस हुए हैं और लगभग सभी पार्टियों में झांक आए हैं।'

दुर्भाग्य से अभी अपने देश में दलबल को वह सामाजिक प्रतिष्ठा और स्वीकार्यता हासिल नहीं हो पाई है, जो उसे मिलनी चाहिए। कुछ लोग दलबदलू कहे जाने के डर से जल्दी-जल्दी अपने राजनीतिक माई-बाप नहीं बदल पाते। इस रूढ़िवादी सामाजिक सोच में बदलाव लाना जरूरी है। पार्टियों के बीच चहलकदमी को वैयक्तिक स्वतंत्रता के रूप में मान दे बढ़ावा दिया जाना चाहिए। बल्कि अपना तो मानना है कि जो अल्पसमय में ही सर्वाधिक दलों की राजनीतिक परिक्रमा कर ले उसके राजनीतिक कौशल और द्रुतगामिता को देखते हुए उसे श्रेष्ठ जनप्रतिनिधि का पुरस्कार दिया जाना चाहिए, अन्यथा इस दलपरिवर्तन की क्रांतिकारी गतिविधि में ह्रास आना तय है।
                 -संजीव शुक्ल

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होली

20 मार्च 2022
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उन्हें होली में भी लिहाज की दरकार थी........... लाल कर दिए गए😊

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चुनावी हार

21 मार्च 2022
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जितने जीत के कारक हैं, उतनी हार की भी अपनी वजहें हैं। अगर नैतिक/अनैतिक दृष्टि से न देखा जाय, (क्योंकि शुचितापूर्ण राजनीतिक व्यवहार के प्रश्न पर लगभग सभी पार्टियां सवालों के घेरे में हैं, बस कोई कम तो

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बहुरूपिया

21 मार्च 2022
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स्वर्णमृगधारी मारीच हो या सीता जी की कुटिया पर आया हुआ साधुवेशधारी रावण, ये सभी सफल हुए तो मात्र इसलिए कि इनके वाह्य रूप को अंतिम सत्य मान इनके बोलों पर विश्वास कर लिया गया। जब-जब बिना पड़ताल किय

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