उन क्षणों में अंतराल कहाँ से आता जब गगनचुंबी इमारतों से घिरी एक इमारत के कमरे से कहासुनी निकल कर फुटपाथ से होकर पार्क के एक कोने में आकर दम तोड़ रही हो...और वो खिलखिलाहट में बदलकर तुम्हारे चेहरे की रंगत और गालों के गड्ढे पर सिमट आई हो।
नहीं सूझा मुझे कुछ कभी ऐसे क्षणों में जब तुम्हारी बदलती रंगत और तेवर मुझे अचंभित कर रहे होते।
आज समझ में आता है जिन्दगी की कशमकश और स्वतंत्रता की छटपटाहट में तुम कितनी निरीहता से समर्पण करते करते जिन्दगी को अलविदा कह गयी_ काश मैं तुम्हें समेट पाता, तुम्हें समझ पाता और संजो पाता तुम्हारे बिखर जाने से पहले तुम्हारे वजूद को और अपना अंश बना पाता।
चेहरे पर आकर गिरी टहनियों से एक ओस की बूंद आंसुओं में कब बदल गयी पता ही नहीं चला।
आज का ही दिन तो था_ हर बार की तरह गीत गुनगुनाती तुम भागी और काल के ग्रास का निवाला बन हमेशा के लिये मुझे अकेला छोड़ गयी।
मुझमें अभी वो दंश बाकी है।
समाप्त!