शिवनाथ चौधरी 'आलम' का पैंतालिस पृष्ठीय आलेख अंक को पठनीय, विचारणीय और संग्रहणीय बनाता है. आज देश भर में सोशल मीडिया और प्रिंट मीडिया में मनुवाद, अम्बेडकर, दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक जैसे शब्द उछाले जा रहे हैं और इनपर अलग-अलग खेमों से जाने कितने विमर्श और निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं.
तीसरा पक्ष के संपादक हैं शिवनाथ चौधरी 'आलम' जी, उनके साथ श्री असंगघोष भी सम्पादक हैं. दलित विमर्श का मूलाधार जाने कब से वृहद् हिन्दू समाज की वर्ण-व्यवस्था और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में दलितों और स्त्रियो की बहिस्कृत भूमिका के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है. इसी तारतम्य में दलित चिन्तक / शोधार्थी हिन्दू धर्मग्रंथों की सत्यता, सनातनता, सार्वभौमिकता और पारलौकिकता जैसे बिन्दुओं पर अपनी दृष्टि से विचार करते हैं. वे सिरे से नकारते हैं उन धर्मग्रंथों की व्याख्याओं को और उन व्याख्याओं पर आधारित शोषण के सिद्धांतों को भी.
शिवनाथ चौधरी ‘आलम’ का आलेख उनकी चीरफाड़ श्रृंखला का पांचवां अध्याय है जो श्रीमदभगवद्गीता के सन्दर्भ में विवेकानंद के विचारों का विखंडन है. ‘आलम’ इस बात से आलेख शुरू करते हैं कि ‘स्त्री, वैश्य और शुद्र पापयोनि हैं.’ यह पंक्ति गीता 9/32 का अनुवाद है. प्रस्तुत आलेख में स्त्री, वैश्य और शुद्र को भारत की पूरी आबादी का 50% मानकर बड़ी विद्वता से स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि देश की लगभग 50% आबादी के प्रति जिस गीता में पापयोनि जैसे कुत्सित विचार हैं उस ग्रन्थ को विवेकानंद ने विश्व का सर्वोत्तम ग्रन्थ कैसे घोषित किया है.
पूरा आलेख गीता के विभिन्न पर्वों के प्रमुख मन्त्रों का अनुवाद और उससे भारतीय समाज में दलितों, स्त्रियों की असामाजिक दशा के कारणों की पड़ताल की गई है.
ईश कुमार साम्भारिया का आलेख ‘दलित-मुसलमान होने का मतलब एवं दलित एकता का सवाल’ बड़ा विचारोत्तेजक आलेख है. कांग्रेसी नेता और विचारक अली अनवर की किताब ‘मसावात की जंग’ के हवाले से तैयार आलेख में भारतीय मुस्लिम समाज के बारे में बना वो मिथक टूटता दिखलाई देता है जिसके अनुसार मुसलमान एक जाति हैं, इनमें धार्मिक या सामाजिक उंच-नीच, भेदभाव नहीं होता है. ईश कुमार ने मुस्लिम समाज में पसमांदा मुस्लिमों की सामाजिक दुर्दशा की पड़ताल की है. इन्ही तर्कों के आधार पर ईश सम्भारिया दलित मुसलमानों के आरक्षण के अली अनवर के सवालों का करारा जवाब देते हैं.कि दलित मुसलमानों को सदियों से ठगा जाता रहा है. वे धर्म-परिवर्तन के बावजूद भी सामाजिक रूप से उपेक्षा का शिकार ही बने रहे जबकि भारतीय मुस्लिम समाज में कहने को न जाने कितने सामजिक बदलाव के आन्दोलन हुए.
देवेश चौधरी देवेश और संजीव खुद्शाह ने रोहित वेमुला के बहाने कन्हैया कुमार और कम्युनिष्ट विचारधारा से दलित आंदोलन को उत्पन्न हुए खतरे की तरफ आगाह करते हैं. उनके अनुसार भारत में दो विचारधाराएँ चल रहीं हैं मनुवादी विचारधारा और अम्बेडकरवादी विचारधारा. मनुवादी विचारधारा से कभी भी समाजवादी या गांधीवादी विचारधारा को खतरा नहीं रहा है न ही वे कम्युनिस्ट विचारधारा से घबराए हैं. क्योंकि संजीव के विचारानुसार कम्युनिस्ट विचारधारा मनुवाद की जड़ें सींचने का ही काम करता रहता है. कम्युनिज्म भारत में उंच-नीच, छुआछूत को नजर अंदाज़ करते हैं लेकिन अब कम्युनिस्ट विचारधारा का एक धडा ब्राम्हणवाद को खत्म करने पर जोर दे रहा है.
असंगघोष का सम्पादकीय वैकल्पिक मीडिया की स्थापना के रास्ते की रुकावटों और अडचनों और बाधाओं के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार करता है और मीडिया का तेज़ी से बढ़ता भगवाकरण और संघ परिवार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का औजार बनते जाना मौजूदा दौर की पत्रकारिता के लिए बड़ी चुनौती माना है. इस वैचारिक लड़ाई का उद्घोष है ‘तीसरा पक्ष’ का जन-मार्च २०१६ अंक.
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तीसरा पक्ष : असंगघोष : त्रैमासिक पत्रिका : पृष्ठ 96
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