तीसरा-पक्ष : अंक 35
अप्रेल-जून 2016
संपादक : असंगघोष, शिवनाथ चौधरी
संपर्क : ३७३४/२३ए, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर मप्र ४८२००२ ०७६१२६४८६८६
पृष्ठ १०४ एक प्रति : 20/- वार्षिक : 80/- आजीवन : १०००/-
दलित लेख न की त्रैमासिकी 'तीसरा पक्ष' इसलिए एक ज़रूरी पठनीय लघुपत्रिका है कि इसमें घोर अंधकार में मशाल का प्रकाश है. इस प्रकाश की ज़रूरत इसलिए है कि यातना-प्रताड़ना-तिरस्कार के गड्ढे में अब ये कौम नहीं गिरने वाली है. वो समय कोई और था जब इन मूलनिवासियों ने अपनी ही आवाज़ का गला घोंट रखा था सिर्फ इसलिए कि तथाकथित सभ्य समाज का ढांचा या यूँ कि कहें कि यथास्थिति बची रहे. बची रहे यातना-प्रताड़ना से पूर्ण सामाजिक संरचना. ये ज्न्हीं जानते थे कि इनके पास पैने दांत भी हैं जिनसे जब चाहे ये काट सकते हैं प्रताड़ित करने वालों के हाथों को.. इनके पास नाखून हैं कि खरबोट सकते हैं जालिमों की चमडियाँ. बाबा साहेब के विचारों का प्रसार हुआ तो इस समाज में प्रतिकार और प्रतिरोध की स्वर सुनाई देने लगे और आज गुजरात की सड़कों पर जो जोश और एकजुटता दिखलाई दे रही है उसे हम सलाम करते हैं. ये ताकत एक दिन में नहीं मिली है इन पीड़ितों को..ये नहीं जानते थे अपनी ही आवाज़ के असर को...
ये नहीं जानते थे वे भी इस धरती के वैसे ही पुत्र हैं जैसे कि अन्य...
लोग कह रहे हैं फेसबुक, व्हाट्सअप आदि के कारण लोग एकजुट हुए. अरे भाई ये कोई क्रिमिनल नहीं हैं कि किसी षड़यंत्र को या किसी प्लान को अंजाम देने के लिए सोशल साइट्स का सहारा ले रहे हों. ये लोग सदियों से पीड़ित/प्रताड़ित हैं और अब इनके अन्दर बाबा साहेब, ज्योतिबा फुले आदि महापुरुषों की शिक्षा का प्रभाव दिखलाई देने लग गया है. सावधान हो जाओ...इन लोगों को पूर्वजन्मों के फल भोगने की दुहाई काम नहीं आएगी. ये अब नहीं मानते कोई ऐसा विधान. इनके पास अपना विधान है, अपना संविधान है और अपना लोकाचार है और ये भी इस लोकतान्त्रिक राष्ट्र के नागरिक हैं जैसे कि अन्य सभी.
जबलपुर जैसे छोटे शहर से तीसरा-पक्ष का निरंतर प्रकाशन आशान्वित करता है. सम्पादकीय में चेतावनी है रामबहादुर राय सरीखे पत्रकारों को जो बाबा साहेब के गुणगान के साथ ये कहने का दुस्साहस कर बैठते हैं कि--'संविधान बनाने में डॉ अम्बेडकर ने सिर्फ प्रूफरीडिंग का काम किया था'. किसी झूठे इतिहास को बार-बार दुहराकर सच साबित करने की साजिशों को बेनकाब करता सम्पादकीय और इस तरह पत्रिका के तेवर और दिशा से पाठक लोक-शिक्षित होने लगता है.
दलित बुद्धिजीवी संजीव खुदशाह भारतीय समाज में व्याप्त बाबाओं का बाज़ार और ठगी जाती जनता का विश्लेषण किया है.
मुसाफिर बैठा ने कबीरपंथ और कबीर पर अपनी चिंताएं व्यक्त की हैं. डॉ कौशल पवार का आलेख वर्तमान दौर में दलित शिक्षा के समक्ष चुनौतियाँ भी बहुत उल्लेखनीय है. यह आलेख हर दलित को पढना चाहिए ताकि जो आज सुविधाभोगी हैं वे अपने सजातीय के उत्थान के लिए प्रयास करें.
तीसरा-पक्ष का सबसे महत्वपूर्ण लेख जयप्रकाश फाकिर का आत्मकथांश है. ये अंश इतना जीवंत, इतना प्रेरणास्पद और इतना मार्मिक है कि मैंने इसकी ज़ेरोक्स करा कर मित्रों को पोस्ट की हैं. वाकई, धारा के विरुद्ध तैरकर किनारे पहुंचना संघर्षपथ गामीयों के लिए टॉनिक का काम करता है. लेखक फाकीर ने अपने जीवन-संघर्ष में जो बेचारा तत्व थे उन्हें भावी भविष्य के लिए कच्चा माल की तरह उपयोग किया. वे अपनी असुविधाओं, अभावों, तिरस्कारों, प्रताडनाओं की जुगाली नहीं करते बल्कि एक नए आकाश, एक नई धरती की तलाश के जद्दोजेहद को जारी रखते हैं. बेहद प्रेरणादाई है जयप्रकाश फाकीर का आत्मकथांश. उनकी पूरी आत्मकथा हम पढना चाहते हैं और चाहते हैं कि ये अंश देश की पाठ्य-पुस्तकों में जोड़ा जाए. नकली आत्मकथाएं और गौरव-गाथाओं के दिन अब लदने चाहिए.
विद्व लेखक शिवनाथ चौधरी 'आलम' की विचार-श्रृंखला (6) ब्राम्हण धर्म के ढिंढोरची विवेकानंद बेहद शोध-परक आलेख है. इसे पढ़कर देश का दलित समाज जानेगा कि उसकी दुर्दशा के पीछे समाज में कैसे-कैसे षड्यंत्र होते रहे हैं.
तीसरा-पक्ष के अंकों की प्रतीक्षा रहती है मुझे.