सनूबर धारावाहिक उपन्यास
अध्याय : एक
एक
लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं कि फिर सनूबर का क्या हुआ...
आपने उपन्यास लिखा और उसमें यूनुस को तो भरपूर जीवन दिया. यूनुस
के अलावा सारे पात्रों के साथ भी कमोबेश न्याय किया. उनके जीवन संघर्ष को बखूबी
दिखाया लेकिन उस खूबसूरत प्यारी सी किशोरी सनूबर के किस्से को अधबीच ही छोड़ दिया.
क्या समाज में स्त्री पात्रों का बस इतना ही योगदान है कि कहानी
को ट्विस्ट देने के लिए उन्हें प्रकाश में लाया गया फिर जब नायक को आधार मिल गया
तो भाग गए नायक के किस्से के साथ. जैसा कि अक्सर फिल्मों में होता है कि अभिनेत्रियों
को सजावटी रोल दिया जाता है.
अन्य लोगों की जिज्ञासा का
तो जवाब मैं दे ही देता लेकिन मेरे एक
पचहत्तर वर्षीय प्रशंसक पाठक का जब मुझे एक पोस्ट कार्ड मिला कि बरखुरदार, उपन्यास में आपने जो परोसना चाहा बखूबी जतन से परोसा...लेकिन
नायक की उस खिलंदड़ी सी किशोरी प्रेमिका 'सनूबर' को आपने आधे उपन्यास के बाद बिसरा ही
दिया. क्या सनूबर फिर नायक के जीवन में नहीं आई और यदि नहीं आई तो फिर इस भरे-पूरे संसार में कहाँ गुम हो गई
सनूबर....
मेरी कालेज की
मित्र सुरेखा ने भी एक दिन फोन पर याद किया और बताया कि कालेज की लाइब्रेरी में तुम्हारा
उपन्यास भी है. मैंने उसे पढ़ा है और क्या खूब लिखा है तुमने. लेकिन यार उस लडकी 'सनूबर' के बारे में और जानने की जिज्ञासा है.
वह मासूम सी
लडकी 'सनूबर'...तुम तो कथाकार हो, उसके बारे में भी क्यों नही लिखते. तुम्हारे अल्पसंख्यक-विमर्श
वाले कथानक तो खूब नाम कमाते हैं, लेकिन क्या तुम उस लडकी के जीवन को सजावटी बनाकर रखे हुए थे या
उसका इस ब्रम्हाण्ड में और भी कोई रोल था...क्या नायिकाएं नायकों की सहायक भूमिका
ही निभाती रहेंगी..??
मैं इन तमाम
सवालों से तंग आ गया हूँ और अब प्रण करता हूँ कि सनूबर की कथा को ज़रूर
लिखूंगा...वाकई कथानक में सनूबर की इसके अतिरिक्त कोई भूमिका मैंने क्यों नहीं
सोची थी कि वो हाड-मांस की संरचना है...मैंने उसे एक डमी पात्र ही तो बना छोड़ा था. क्या मैं भी हिंदी मसाला फिल्मों वाली पुरुष
मानसिकता से ग्रसित नहीं हूँ जिसने बड़ी खूबसूरती से एक अल्हड पात्र को आकार दिया
और फिर अचानक उसे छोड़ कर पुरुष पात्र को गढने, संवारने के श्रम लगा दिया.
मुझे उस सनूबर
को खोजना होगा...वो अब कहाँ है, किस हाल में है...क्या अब भी वो एक पूरक इकाई ही है या उसने कोई
सवतंत्र इमेज बनाई है ?