shabd-logo

सनूबर

31 मई 2016

165 बार देखा गया 165
featured image

सनूबर  धारावाहिक उपन्यास 


अध्याय : एक 

एक

लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं कि फिर सनूबर का क्या हुआ...

आपने उपन्यास लिखा और उसमें यूनुस को तो भरपूर जीवन दिया. यूनुस के अलावा सारे पात्रों के साथ भी कमोबेश न्याय किया. उनके जीवन संघर्ष को बखूबी दिखाया लेकिन उस खूबसूरत प्यारी सी किशोरी सनूबर के किस्से को अधबीच ही छोड़ दिया.

क्या समाज में स्त्री पात्रों का बस इतना ही योगदान है कि कहानी को ट्विस्ट देने के लिए उन्हें प्रकाश में लाया गया फिर जब नायक को आधार मिल गया तो भाग गए नायक के किस्से के साथ. जैसा कि अक्सर फिल्मों में होता है कि अभिनेत्रियों को सजावटी रोल दिया जाता है.

अन्य लोगों की जिज्ञासा का तो जवाब मैं दे ही देता लेकिन मेरे एक पचहत्तर वर्षीय प्रशंसक पाठक का जब मुझे एक पोस्ट कार्ड मिला कि बरखुरदार, उपन्यास में आपने जो परोसना चाहा बखूबी जतन से परोसा...लेकिन नायक की उस खिलंदड़ी सी किशोरी प्रेमिका 'सनूबर' को आपने आधे उपन्यास के बाद बिसरा ही दिया. क्या सनूबर फिर नायक के जीवन में नहीं आई  और यदि नहीं आई तो फिर इस भरे-पूरे संसार में कहाँ गुम हो गई सनूबर....
मेरी कालेज की मित्र सुरेखा ने भी एक दिन फोन पर याद किया और बताया कि कालेज की लाइब्रेरी में तुम्हारा उपन्यास भी है. मैंने उसे पढ़ा है और क्या खूब लिखा है तुमने. लेकिन यार उस लडकी 'सनूबर' के बारे में और जानने की जिज्ञासा है. 
वह मासूम सी लडकी 'सनूबर'...तुम तो कथाकार हो, उसके बारे में भी क्यों नही लिखते. तुम्हारे अल्पसंख्यक-विमर्श वाले कथानक तो खूब नाम कमाते हैं,  लेकिन क्या तुम उस लडकी के जीवन को सजावटी बनाकर रखे हुए थे या उसका इस ब्रम्हाण्ड में और भी कोई रोल था...क्या नायिकाएं नायकों की सहायक भूमिका ही निभाती रहेंगी..??
मैं इन तमाम सवालों से तंग आ गया हूँ और अब प्रण करता हूँ कि सनूबर की कथा को ज़रूर लिखूंगा...वाकई कथानक में सनूबर की इसके अतिरिक्त कोई भूमिका मैंने क्यों नहीं सोची थी कि वो हाड-मांस की संरचना है...मैंने उसे एक डमी पात्र ही तो बना छोड़ा था. क्या मैं भी हिंदी मसाला फिल्मों वाली पुरुष मानसिकता से ग्रसित नहीं हूँ जिसने बड़ी खूबसूरती से एक अल्हड पात्र को आकार दिया और फिर अचानक उसे छोड़ कर पुरुष पात्र को गढने, संवारने के श्रम लगा दिया.
मुझे उस सनूबर को खोजना होगा...वो अब कहाँ है, किस हाल में है...क्या अब भी वो एक पूरक इकाई ही है या उसने कोई सवतंत्र इमेज बनाई है ?

14
रचनाएँ
hamnafas
0.0
समय के द्वार पर दस्तक
1

अच्छा हुआ मैं किसान ना हुआ, सपने सच नही होते...किसान पर कविता - CGNet Swara

17 अप्रैल 2016
0
5
0

CGnet Swara is a platform to discuss issues related to Central Gondwana region in India. To record a message please call on +91 80 500 68000.

2

प्रसिद्ध चित्रकार कवि कुंवर रवीन्द्र सिंह (के रवीन्द्र ) जी, उनकी किताब 'रंग जो छूट गया था' के साथ मैं

17 अप्रैल 2016
0
4
0

CGnet Swara is a platform to discuss issues related to Central Gondwana region in India. To record a message please call on +91 80 500 68000.

3

जनकवि विद्रोही

17 अप्रैल 2016
1
5
0

और क्या ये उस आत्मा को सही श्रद्धांजली नहीं है...जब इतनी रात बीतगई और फिर भी मैं जाग हूँ? इतनी थकावट है फिर भी मैं व्यथित जाग  रहा हूँ?  सोचता हूँ कि यदि मैं पागल नहीं हूँ तो फिर पागलपन होता क्या है? एक पागल और (अ)पागल में क्या अंतर होता है? क्या संसार (अ)पागलों से संचालित होता है? यानी जो पागल नहीं

4

आदमी और आदमियत के सवालों से जूझती कविताएँ

29 अप्रैल 2016
0
3
0

देश के प्रमुखचित्रकार-कवि कुंवर रवीन्द्र सिंह या के. रवीन्द्र की कविताएँ ‘रंग जो छूट गया था’के रूप में आई हैं. छोटी-छोटी कविताओं में कवि आदमियत को बचाए रखने के लिए चिंतितनजर आते हैं. ये आदमी निस्संदेह पंक्ति का आखिरी आदमी ही है जिसकी जिजीविषा औरजीवन-संघर्ष को बड़ी बेचैनी से कवि महसूस करता है. ये आदमी

5

बदला लेने का पढाई

12 मई 2016
0
1
0

वे जो भी थे, जैसे भी थे वे उस समय वैसे क्यों थे इन सवालों का जवाब क्यों खोजा जा रहा अब उनके अपराधों की सुनवाई हुई नहीं क्यों तब क्यों नहीं तय की गई सज़ावे जो भी थे, वे हम नहीं थे वे जो भी थे, वे तुम नहीं थे बेशक उस समय हम नहीं थे बेशक उस समय तुम नहीं थे फिर क्यों पलटे जा रहे पन्ने उस समय के जब तुम नह

6

वंचित जन का अभिनन्दन

13 मई 2016
0
3
0

जिसकी मर्ज़ी साथ चले औजिसके मन में हो कट जाए बेमन से मिलने से बेहतरखुद ही रस्ते से हट जाए।लम्बा रस्ता, ऊबड़ खाबड़ चारों और उड़े है धूल छाँह तलाशे व्याकुल आँखें जित देखो तित उगे बबूल ।फिर भी जो भी साथ चल रहे उनका अभिषेक, उनको नमनभूखे प्यासे अलख जगाते वंचित जन का हो अभिनन्दन।।।।

7

दलित विमर्श की त्रैमासिकी 'तीसरा पक्ष'

16 मई 2016
0
5
0

शिवनाथ चौधरी 'आलम' का पैंतालिस पृष्ठीय आलेख अंक को पठनीय, विचारणीय और संग्रहणीय बनाता है. आज देश भर में सोशल मीडिया और प्रिंट मीडिया में मनुवाद, अम्बेडकर, दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक जैसे शब्द उछाले जा रहे हैं और इनपर अलग-अलग खेमों से जाने कितने विमर्श और निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं. तीसरा पक्ष के संप

8

खनिक

20 मई 2016
0
3
1

कोयला खदान की आँतों सी उलझी सुरंगों में पसरा रहता अँधेरे का साम्राज्यअधपचे भोजन से खानिकर्मी इन सर्पीली आँतों में भटकते रहते दिन-रात चिपचिपे पसीने के साथ...तम्बाकू और चूने को हथेली पर मलते एक-दूजे को खैनी खिलाते सुरंगों में पिच-पिच थूकतेखानिकर्मी जिस भाषा में बात करते हैं संभ्रांत समाज उस भाषा को अस

9

पहचान : उपन्यास अंश

31 मई 2016
0
0
0

यहकोतमा और उस जैसे नगर-कस्बों में यह प्रथा जाने कब से चली आ रही है कि जैसे ही किसी लड़के के पर उगे नहीं कि वह नगर के गली-कूचों को ‘टा-टा’ कहके ‘परदेस’ उड़ जाता है।कहते हैं कि ‘परदेस’ मे सैकड़ों ऐसे ठिकाने हैं जहां नौजवानों की बेहद ज़रूरत है। जहां हिन्दुस्तान के सभी प्रान्त के युवक काम की तलाश में आते है

10

सनूबर

31 मई 2016
0
1
0

सनूबर  धारावाहिक उपन्यास अध्याय : एक एक लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं कि फिर सनूबर का क्या हुआ...आपने उपन्यास लिखा और उसमें यूनुस को तो भरपूर जीवन दिया. यूनुसके अलावा सारे पात्रों के साथ भी कमोबेश न्याय किया. उनके जीवन संघर्ष को बखूबीदिखाया लेकिन उस खूबसूरत प्यारी सी किशोरी सनूबर के किस्से को अधबीच ही छ

11

अस्त-व्यस्त

2 जून 2016
0
5
0

काम का कोई अंत नही समय की कोई सीमा नही सब कुछ अस्त-व्यस्त ऐसे में कितना मुश्किल है बचा पाना समय खुद के लिए अपनों के लिए कुल मिलाकर टालते जाता हूँ अपनी ज़रूरतें अपनी ख्वाहिशें और फिर से भिड जाता हूँ एक बेहतर कल की उम्मीद के साथ जाने वो कल कब आएगा ----

12

जहर की खेती

16 जून 2016
0
1
1

ज़हर की खेतीफिर फिर होतीबोने वाले, शातिर इतनेऔर बहुत माहिर हैं देखोक़ानून बनाकर ज़हर बो रहेमकसद उनका. लोकतन्त्र मेंखूब  उगे  वोटों की फसलदेखो तो अपने मकसद मेंबेशरम हुए जा रहे सफल....भोले-भाले  आम  जन  को  जाने कब  आएगी  अकल.....

13

मेहनतकश के सीने में

23 जून 2016
0
3
1

कितना कम सो पाते हैं वेयही कोई पांच-छः घंटे ही तोयदि हुई नही बरसातपड़ा नही कडाके का जाड़ातो उतने कम समय में वेसो लेते भरपूर नींदबरखा और शीत में हीअधसोए गुजारते रातउनसे पहले उठती घरवालियाँचूल्हे सुलगा पाथती छः रोटियाँअचार या नून-मिरिच के साथपोटली में गठियातीं तब तकछोड़कर बिस्तर वे किसी यंत्र-मानुष की तर

14

तीसरा पक्ष

12 अगस्त 2016
1
1
0

तीसरा-पक्ष : अंक 35अप्रेल-जून 2016 संपादक : असंगघोष, शिवनाथ चौधरी संपर्क : ३७३४/२३ए, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर मप्र ४८२००२ ०७६१२६४८६८६पृष्ठ १०४ एक प्रति : 20/- वार्षिक : 80/- आजीवन : १०००/-दलित लेखन की त्रैमासिकी 'तीसरा पक्ष' इसलिए एक ज़रूरी पठनीय लघुपत्रिका है कि इसमें घोर अंधकार में मशाल का

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए