और क्या ये उस आत्मा को सही श्रद्धांजली नहीं है...जब इतनी रात बीत
गई और फिर भी मैं जाग हूँ? इतनी थकावट है फिर भी मैं व्यथित जाग रहा हूँ? सोचता हूँ कि यदि मैं पागल नहीं हूँ तो फिर पागलपन होता क्या है? एक पागल और (अ)पागल में क्या अंतर होता है? क्या संसार (अ)पागलों से संचालित होता है? यानी जो पागल नहीं हैं वे ही व्यवस्था के संचालक हो सकते हैं...
क्या नित्यानंद गायेन की सूचना ने मुझमें पागलपन के लक्षण डाल दिए
हैं? रमाशंकर यादव उर्फ़
विद्रोही जी से जब मैं दिल्ली गया था मिलना चाहता था. वे अक्सर जेएनयू परिसर के
गंगा ढाबा के आसपास मिल जाते थे, लेकिन उस महामानव से भेंट मेरी किस्मत में नहीं लिखी थी. वे उस दिन
वहां नहीं देखे गये. नित्यानंद गायेन ने गंगा ढाबा में मुझे चाय पिलाई थी...
रात फोन पर नित्यानंद गायेन ने तो सिर्फ इतनी बात कही कि विद्रोही
जी नहीं रहे....कैसी खबर थी ये जिसे नित्यानंद ने मुझे सुनाना ज़रूरी समझा और ये
विद्रोही जी ऐसी कौन सी शख्सियत थे कि जिनके लिए व्यथित हुआ जाए. फिर हमरंग के
संपादक हनीफ मदार का फोन आया कि विद्रोही जी के बारे में पोस्ट डालनी है, फ़िल्मकार इमरान या नितिन का पता या फोन नम्बर खोजा जाए जिसने
विद्रोही पर डाक्यूमेंट्री बनाई है. लगभग चालीस मिनट की फिल्म जिसमें विद्रोही जी
को समग्र रूप से फिल्माने का एक विनम्र प्रयास है.
मैंने देखा कि फेसबुक में स्वतः स्फूर्त लोगों ने विद्रोही के निधन
पर पोस्ट लगानी शुरू कर दी हैं...और सबसे आश्चर्य तब हुआ जब बारहवीं की गणित की
तैयारी करती बिटिया सबा मेरे साथ विद्रोही को यू-ट्यूब पर सुनने लगी...क्या था उस
कवि विद्रोही की वाणी में कि आदेल के अंग्रेजी गाने सुनने वाली बिटिया भी मन्त्र-मुग्ध
होकर विद्रोही को सुनने लगी...
“और ईश्वर मर गया
फिर राजा भी मर गया
राजा मरा लड़ाई में
रानी मरी कढ़ाई में
और बेटा मरा पढाई में...”
जबकि देश के आइआइटीयन तो कुमार विश्वास को ही हिंदी का सबसे बड़ा
कवि समझते हैं, चेतन भगत को महान
उपन्यासकार, फिर ये विद्रोही ऐसा
कौन सा कवि हुआ जिसके न रहने से लोगों को इतनी व्यथा हो रही है, कि जिसके रहने से कोई विचलित नहीं होता था..वो सत्ता या सेठ से
सम्मानित कवि भी नहीं थे कि उनके पास सम्मान लौटाने का विकल्प हो...वे सत्ता से
प्रताड़ित कवि भी नहीं थे कि कभी पक्षधर सरकार बनती तो उनका सम्मान होता...फिर
क्यों लोग रमाशंकर यादव उर्फ़ कवि विद्रोही जी के निधन पर इतने दुखी हैं....लेकिन
एक बात तो है पार्टनर कि भले से हमें कुंवर नारायण, नरेश सक्सेना या केदारनाथ सिंह की कविता-पंक्ति याद हो या न हो
लेकिन विद्रोही की पंक्तियाँ अवचेतन में जाने क्यों जगह बना लेती हैं और बार-बार
उद्धृत होने को बेचैन करती हैं जैसे ये विद्रोही की कविता न होकर मिर्ज़ा ग़ालिब के
अशआर हों या कोई चिर-परिचित मुहावरे...
"अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है"
या
"मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को
एक ही साथ औरतों की अदालत में तलब कर दूंगा "
या
" मेरी नानी की देह, देह नहीं आर्मीनिया की गांठ थी"
या
“ओ री बुढि़या, तू क्या है,
आदमी कि आदमी का पेड़!
पेड़ थी दोस्तों, मेरी नानी आदमियत की,
जिसका कि मैं एक पत्ता हूं।
मेरी नानी मरी नहीं है,
वह मोहनजोदड़ो के तालाब में स्नान को गई है,
और अपनी धोती को
उसकी आखिरी सीढ़ी पर सुखा रही है।
उसकी कुंजी यहीं कहीं खो गई है,
और वह उसे बड़ी बेसब्री के साथ खोज
रही है।“
ऐसी-वैसी कितनी कविताएँ हैं जिन्हें उद्धृत करूँ या ये मान लूँ कि
स्वतन्त्र देश का स्कालर उनकी सोच और कविता से भिज्ञ है. बेशक विद्रोही की
कवितायेँ जिस तरह के वितान रचती हैं उसे ड्राइंग-रूम में नहीं गढ़ा जा सकता है. ये
कविताएँ बेशक कवि की जिद को सार्वजनिक करती हैं जहां कवि-कर्म और कविता की सामाजिक
ज़िम्मेदारी कवि की बेचैनी को प्रदर्शित करती है---
“तो क्या
आप मेरी कविता को सोंटा समझते है?
मेरी कविता वस्तुतः लाठी ही है,
इसे लो और भांजो!
xxxxxxxxx
तुम इसे भगवान के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी।
लेकिन तुम इसे इंसान के खिलाफ
भांजोगे,
न, नहीं भंजेगी।
कविता और लाठी में यही अंतर है।“
हम कविता को रिरियाने का एक विनम्र औज़ार माने बैठे हैं और यही कारण
है कि कवि और कविता हर तरफ लातियाई जा रही है, क्योंकि हमारे औज़ार भोथरे हो चुके हैं जिनमें धार चढाने की जगह हम
उन औजारों के लिए एक खोल तलाश रहे हैं कि हमारी कविताएँ किसी तरह पुस्तकालयों में
सुरक्षित/संरक्षित रहें.
विद्रोही जैसी शख्सियत धरती पर पैदा नहीं होते बल्कि अवतरित होते हैं...जेएनयू का कैम्पस बड़े दुलार से अपने
चितेरे कवि को संरक्षित रखता था. हाँ, हमने भूल की और उनके लेखन को क्रमबद्ध तरीके से संकलित नहीं
किया..वर्ना धूमिल, गोरख पाण्डेय और
अदम गोंडवी की कतार के कवि हैं विद्रोही जी.
वही विद्रोही कहते हैं तो लगता है कि ये पागल व्यक्ति का कथन नहीं
हो सकता लेकिन सभ्य समाज ऐसे व्यक्ति को पागल ही कहता है जो ये कहे---“मैं ऐसी कवितायेँ लिखता हूँ जिसके कारण या तो मुझे पुरूस्कार मिले
या फिर सत्ता से सज़ा...लेकिन देखो ये कैसी व्यवस्था है जो मुझे न पुरस्कार देती है
न सज़ा...अब मैं क्या करूँ...जबकि मैंने लिखा ये सोचकर कि मुझे सज़ा मिलेगी...!“
“मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें.”
मैं जानता हूँ कि ये किसी नेता की मृत्यु का मामला नहीं है, और नहीं है किसी संवैधानिक-ओहदेदार या संत की मृत्यु. इस मृत्यु को
आसानी से नज़र-अंदाज़ किया जा सकता है. आप भले से उन मौतों को भूल जाएँ, जिनमें राष्ट्रीय शोक की घोषणाएं होती हैं. जिनके कारण शासकीय
अवकाश घोषित होते हैं. राष्ट्रीय ध्वज झुकाए जाते हैं. कई तरह की संस्थाएं शोक-सभा
का आयोजन करती हैं. अंततः ऐसी मौतें राष्ट्र को मृत्यु के उत्सव की तरफ घसीट ले
जाती हैं.. सत्ता-नियोजित भव्य शोभा-यात्रायें मौत को भी एक इवेंट की तरह
सेलेब्रेट करती हैं.. ऐसी मौतों से मैं क्या कोई भी व्यथित नहीं होता...भले से मौत
स्वाभाविक न होकर हत्या ही क्यों न हो! उस मौत का हत्यारा सज़ा पाए या न पाए लेकिन
उस हत्या के बाद होने वाले नरसंहार के हत्यारे कभी सज़ा नहीं पाते...कई पीढियां
मुक़दमे लडती जाती हैं...मौत का मुआवजा मिल जाना ही जैसे अभीष्ट होता है और सदियों तक मरने से बच गये लोग हर रात स्वप्न में
डरते हुए कत्ल होते रहते हैं, उनके इस आजीवन डर का कोई मुआवजा नहीं होता...
विद्रोही जी की मृत्यु ऐसी मृत्यु नहीं है कि इवेंट की तरह मैनेज
हो...भले से कवि को अपने होने और न होने के बारे में जानकारी थी, तभी तो कितनी बुलंदी से वे कह गये---
"कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा...."
विद्रोही की कविता का अक्खडपन ही उन्हें विशिष्ट बनाता है...जब वे
नूर मियाँ को याद करते हुए लिखते हैं. इस महादेश में ऐसा जटिल प्रश्न विद्रोही ही
पूछ सकते हैं---
“नूर मियां का सुरमा सिन्नी है मलीदा है
और वही नूर मियां पाकिस्तान चले गए
क्यूं चले गए पाकिस्तान नूर मियां
कहते हैं कि नूर मियां का कोई था
नहीं
तब , तब क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियां के ?
नूर मियां क्यूं चले गए पकिस्तान ?
बिना हमको बताये
बिना हमारी दादी को बताये
नूर मियां क्यूं चले गए पकिस्तान?”
वही नूर मियाँ जिसका सूरमा—“ ओ री बुढिया / तू तो है सुकन्या/ और तेरा नूर मियां है च्यवन ऋषि /
नूर मियां का सुरमा / तेरी आँखों का च्यवनप्राश है”.
विद्रोही हमारे आधुनिक कबीर हैं. तभी तो वे कहते हैं---“तुम्हारे मान लेने से / पत्थर भगवान हो जाता है,/
लेकिन तुम्हारे मान लेने से / पत्थर
पैसा नहीं हो जाता।“
विद्रोही की चिंताओं में स्त्री, मजदूर, दलित और युवा जिस तरह से आते हैं वैसा बिम्ब हमारे मुख्यधारा के
कवि क्यों अपनी कविताओं में नहीं ला पाते? क्या मजबूरियाँ रहती होंगी उनके साथ कि वे कायदे की बात कहने के
लिए अमूर्त हो जाते हैं, कठिन कविता के प्रेत से बने सत्ता के गलियारों में विचारने का
लाइसेंस क्या उनको अपनी गूढता, अमूर्तता के कारण मिलता है?
“...और ये इंसान की बिखरी हुई हड्डियाँ
रोमन के गुलामों की भी हो सकती हैं
और
बंगाल के जुलाहों की भी या फिर
वियतनामी, फ़िलिस्तीनी बच्चों की”
औरतों की जली लाशें और इंसानों की बिखेरी गई हड्डियां आखिर किन
सभ्यताओं की दास्तानें हैं. क्या हम उन सभ्यताओं को आज तलक चिन्हित नहीं कर पायें
हैं या फिर उन सभ्यताओं से पुष्पित-पल्लवित होने की लालसा पाले हम खामोश हैं...हम
भी क्यों नहीं अपनी उपस्थिति इस तरह से दर्ज करा सकते हैं कि---
“तुम क्या समझते हो कि मैं खेतों का बेटा होकर
तुम्हारे उगले हुए स्वादों की बात करूँगा...!”
अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का जज्बा आराम-तलब ज़िन्दगी के एवज़ किया
गया कोई सौदा या डील तो नहीं है? ये ऐसे प्रश्न हैं जिन्हें आने वाली पीढ़ी हमेशा पिछली पीढ़ी से
पूछती है और फिर या तो विद्रोह-राग गाती है या फिर सुविधा-गान....
क्या निराशा या हताशा का गान प्रतिबंधित होना चाहिए? क्या प्रतिरोध या विरोध या विद्रोह के स्वर हमेशा हमेशा के लिए
खामोश कर दिए जाने चाहिए---
“हर जगह ऐसी ही जिल्लत,
हर जगह ऐसी ही जहालत,
हर जगह पर है पुलिस,
और हर जगह है अदालत।
हर जगह पर है पुरोहित,
हर जगह नरमेध है,
हर जगह कमजोर मारा जा रहा है, खेद है।“
बेशक खेद है हमें विद्रोही जी, आपके जाने से नहीं पैदा हुआ कोई भूचाल, नहीं उखडा कोई बरगद, नहीं हुई कोई क्रिया की प्रतिक्रिया...आप इस तरह चल दिए चुपचाप
जेएनयू के प्रांगण से जैसे कि कभी थे ही नहीं...न बनेगा कोई स्मारक आपका, न स्थापित होगी कोई सृजन-पीठ...बस एक सन्नाटा सा पसरा रहेगा कुछ
दिन गंगा-ढाबा के सामने...और जब पेड़ों पर आएँगी नई पत्तियां, क्या उन्हें पेड़ बता पायेंगे कि हमारी ही किसी शाखा पर टंगा रहता
था एक लावारिस थैला...एक विच्छिप्त कवि का सरमाया...
उनके लेखन पर, लेखनी पर, जीवनी पर और भी लोग बेशक लिक्खेंगे लेकिन मैं जो उनसे कभी नहीं
मिला, मैं जो जेएनयू
में नहीं पढ़ा...मैं जो खुद को एक चेतना संपन्न जागरूक नागरिक होने का दम्भ जीता
हूँ आज बहुत व्यथित हूँ कि हम विद्रोही के लिए एक मुहाफ़िज़ क्यों नहीं बन
पाए...क्या हम पागल नहीं थे..?
विद्रोही का एक सवाल हमेशा जेएनयू में प्रेत की तरह डोलता रहेगा---
“जेएनयू में जामुन बहुत होते हैं
और हम लोग तो बिना जामुन के
न जेएनयू में रह सकते हैं
और न दुनिया में ही रहना पसंद
करेंगे।
लेकिन दंगों के व्यापारी,
जम्बूद्वीप नहीं रहेगा तो
करील कुंज में डेरा डाल लेंगे,
देश नहीं रहा तो क्या हुआ,
विदेश चले जायेंगे।
कुछ लोग अपने घाट जायेंगे,
कुछ लोग मर जायेंगे,”
लेकिन हम कहां जायेंगे?
हम जो न मर रहे हैं और न जी रहे हैं,
सिर्फ कविता कर रहे हैं।“
विद्रोही जी को शत शत नमन.....