कोयला खदान की
आँतों सी उलझी सुरंगों में
पसरा रहता अँधेरे का साम्राज्य
अधपचे भोजन से खानिकर्मी
इन सर्पीली आँतों में
भटकते रहते दिन-रात
चिपचिपे पसीने के साथ...
तम्बाकू और चूने को
हथेली पर मलते
एक-दूजे को खैनी खिलाते
सुरंगों में पिच-पिच थूकते
खानिकर्मी जिस भाषा में बात करते हैं
संभ्रांत समाज उस भाषा को
असंसदीय कहता, अश्लील कहता...
खदान का काम खत्म कर
सतह पर आते वक्त
पूछते अगली शिफ्ट के कामगारों से
ऊपर का हाल
कैसा है मौसम
आजकल मौसम का भी तो
नहीं कोई ठिकाना
जबकी उन्हें
खदान से निकल कर
बहुत दूर है जाना...
जिनके घरों में उनका
हो रहा होगा इन्तेज़ार...
सोख लेता खदान
बदन का पानी
लील लेता खदान
मन की उमंगों को
चूस लेता खदान
रही-सही ऊर्जा को
बचा रहता इंसान
बस इतना ही
कि अगले दिन
बदस्तूर खैनी की डिबिया
जेब में डाले
आ जाता कामगार डियूटी पर....