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मेहनतकश के सीने में

23 जून 2016

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कितना कम सो पाते हैं वे
यही कोई पांच-छः घंटे ही तो
यदि हुई नही बरसात
पड़ा नही कडाके का जाड़ा
तो उतने कम समय में वे
सो लेते भरपूर नींद
बरखा और शीत में ही
अधसोए गुजारते रात
उनसे पहले उठती घरवालियाँ
चूल्हे सुलगा पाथती छः रोटियाँ
अचार या नून-मिरिच के साथ
पोटली में गठियातीं तब तक
छोड़कर बिस्तर वे किसी यंत्र-मानुष की तरह
फ़टाफ़ट होते तैयार
और निकल पड़ते मुंह-अँधेरे ही
खदान की तरफ
आखिर बीस कोस साइकिल चलाना है
जुड़े रहते तार उनके इस तरह
कि पहले मोड पर मिल जाते कई संगी
एक राऊण्ड तम्बाखू-चून की चुटकी
होंठ और मसूढ़ों के बीच दबा
पिच-पिच थूकते, जो नागा किया उसके बारे में
अंट-शंट बतियाते, पैडल मारते तय करते दूरियां
उन्हें नही मालूम कि प्रधान-मंत्री सडक योजना क्या है
वर्ना इन पथरीली पगडंडियों पर आदिकाल से
यूँ ही नही चलना पड़ता उन्हें
छोटे नाले-नदी, जंगल-टीले पार करते-करते उग आता सूरज
और उन्हें तब तक दिखलाई देने लगता कोयला-खदान के चिन्ह
रात पल्ली से लौटते श्रमिक मिलते तो राम-राम हो जाती
एक तसल्ली भी मिलती कि खदान चालू है
काम मिल ही जाएगा,
बिना कामनही लौटना पड़ेगा उन्हें…
वे खदान पहुँचते हैं तो
बड़ी आसानी से कोयले के ढेर में घुल-मिल जाते हैं

article-image

साभार google से

ऐसे दीखते हैं जैसे हों कोयला की तराशी हुई चट्टानें
जो ये जानते ही नही कि उनमे छुपी हुई है बिकट आग
कि उनमे छुपा है बिजली बनाने का तिलस्म
कि उनमे पेवस्त है स्टील बनने का रसायन
वे नही जानते कुछ भी
सिवाय इसके कि इस जनम यही लिखा उनके भाग में
और भाग के लिखे को कौन मिटा सकता है…
वे नही जानते कुछ भी
सिवाय इसके कि भगवान जिसे चाहे देता दुःख-पीड़ा
और जिसे चाहे देता सुख-सुविधाएं अपार
लेकिन मुंह अँधेरे इन साइकिल चालकों में
एक भोले है, एक भूपत है, एक गंगा है
जिनके पास सवाल ही सवाल हैं
और बुज़ुर्ग मजदूर सुमारु उन्हें समझाता रहता
भर-रास्ता उन्हें डांटता और सबर करने को कहता
लेकिन भोले, भूपत और गंगा के सवाल
पूरब में उगते सूर्य की आभा में दमक उठते
और एक नया रास्ता सूझता उन्हें
उस रास्ते में दीखते अनगिन ठोकर, अंतहीन यातनाएं
और फिर दूर-दूर तक अँधेरा ही अँधेरा…
क्या इसका मतलब ये समझा जाए
कि खदान पहुंचते ही
उनके मन में उठे सवालात दफ़न हो गए
वे नहीं जानते कि सवाल जो उठा है मन में
ये पहली बार नही आया है
इससे पहले जाने कितनी पीढियां
खत्म हो गईं इन सवालों से टकराते-जूझते
इसी प्रयास में कि इस लड़ाई को
जल्द ही जीत लेंगे वे
और सूरज आसमान पर उगता रहा
चाँद निकलता रहा
धरती घूमती रही
पेड़-पौधे-फूल उगते-कटते रहे
और हर बार मेहनतकश के सीनों में
यूँ ही सवाल पनपते और दफ़न होते रहे…..

शिशिर मधुकर

शिशिर मधुकर

आंचलिक जीवन का सत्य आपने भावुकता से उकेरा है.

24 जून 2016

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तीसरा-पक्ष : अंक 35अप्रेल-जून 2016 संपादक : असंगघोष, शिवनाथ चौधरी संपर्क : ३७३४/२३ए, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर मप्र ४८२००२ ०७६१२६४८६८६पृष्ठ १०४ एक प्रति : 20/- वार्षिक : 80/- आजीवन : १०००/-दलित लेखन की त्रैमासिकी 'तीसरा पक्ष' इसलिए एक ज़रूरी पठनीय लघुपत्रिका है कि इसमें घोर अंधकार में मशाल का

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