द्वापर,त्रेता एवं आज तक नारी की स्थिति
"अप्यहं जीवितं जह्यां युष्मान् वा पुरूषर्षभा:।
अपवादभयाद् भीत: किं पुनर्जनकात्मजाम् "
अर्थात्
"नरश्रेष्ठ बन्धुओं ! मैं लोकनिन्दा के भय से अपने प्राणों को और तुम सबको भी त्याग सकता हूँ। फिर सीता को त्यागना कौन बड़ी बात है?"
श्री राम का अपने भाइयों से यह कथन अति आश्चर्यजनक है।लोक निन्दा के कारण अपनी पत्नी को त्याग देना,कितना बड़ा अन्याय है। वह भी मर्यादा पुरुषोत्तम के द्वारा। किसी भी मानव को वन में छोड़ देने का विचार ही अशोभनीय है।उसमें नारी वो भी प्राणप्रिया संगिनी को बिना किसी अपराध के निर्जन वन में बिना सूचना के, वह भी अपने भाई के द्वारा वन में भेज देना अति लज्जाजनक है।
राजा का कार्य है प्रजा का पालन करना। किसी भी जनता को कोई कष्ट न हो।हर मानव का ध्यान रखने वाले श्री राम कैसे इतनी बड़ी भूल कर बैठे? अपनी जीवन संगिनी को कैसे वन में छोड़ देने की आज्ञा दे दी !? उनकाे तनिक भी चिन्ता नहीं हुई कि सुकुमारी कैसे जीवन यापन करेंगी?
कोई हिंसक जानवर भक्षण न कर ले। इसकी भी चिन्ता नहीं थी।बस अपने यश की चिन्ता थी। पत्नी-धर्म तो दूर की बात! मानव धर्म भी नहीं निभा सके राम ! विवाह के समय लिए गए सप्तपदी का वचन भी पूर्ण न कर सके।
जो पत्नी अपना भोग वैभव, माता पिता,बहनों और सगे सम्बन्धियों को छोड़ कर १४ साल अपने पति राम के संग वन जाना स्वीकार किया। सबकी इच्छा नहीं रहते हुए भी पति प्रेम और अपने कर्तव्य निर्वाह हेतु निमिष मात्र भी विचलित नहीं हुयी ।
राजर्षि जनक की दुहिता जिनका कभी किसी कष्ट से नाता नहीं था,जनक के आंखों की तारा सीता वैभव त्याग कर पति संग तापसी जीवन व्यतीत करने हेतु छाया सदृश राम संग रहीं। पुष्पों की शैय्या छोड़ कांटों की शय्या को पसन्द किया था।
इतना ही नहीं रावण द्वारा अपह्रृत होने पर असह्य दु:खों को सहा। रावण की अशोभनीय बातें सुनती थीं।राक्षसियों के अपशब्द सुनने पड़े।दिन रात पीड़ा में व्यतीत किया।राम के प्रति अनन्य अनुराग के कारण उनकी प्रतीक्षा में रहीं ।वही सीता जब अपने पति राम से मिलीं तो अग्नि परीक्षा देने पड़ी , अपनी पवित्रता को प्रमाणित करने के लिए। आश्चर्य होता है की जिस राम ने अहल्या , जो की इंद्र द्वारा बलात्कृत थी उनका उद्धार किया था , उन्हें समाज में इज्जत दिलाई थी , और यहाँ अपनी सती पत्नी जो की केवल रावण द्वारा अपहृत थी , फिर भी राम ने अग्नि परीक्षा ली ! यह किसी मर्यादा पुरुषोत्तम से अपेक्षित नहीं ।
अग्नि,जल, वायु आदि देवताओं ने सीता के पवित्रता का प्रमाण ही नहीं दिया, जय घोष कर नमन भी किया था।
एक प्रजा के कहने पर इतना बड़ा दण्ड देना तथा इतना कठोर निर्णय लेना सर्वथा अनुचित था।
राम की पत्नी के प्रति निरंकुश होने तथा उनको अपने निर्णय लेने की , किसी की बात न सुनने की या अपने समक्ष किसी अन्य की न सुनना तब परिलक्षित होता है जब वे कहते हैं -
" तत्रैतां विजने देशे विसृज्य रघुनन्दन।।
शीघ्रमागच्छ सौमित्रे कुरूष्व वचनं मम।
न चास्मि प्रतिवक्तव्य:
सीतां प्रति कथंचन ।
अर्थात् , रघुनन्दन!उस आश्रम के निकट निर्जन वन में तुम सीता को छोड़कर शीघ्र लौट आओ।
सुमित्रानन्दन! मेरी इस आज्ञा का पालन करो । सीता के विषय में मुझसे किसी तरह कोई दूसरी बात तुम्हें नहीं कहनी चाहिये।
तस्मात् त्वं गच्छ सौमित्रे नात्र कार्या विचारणा।
अप्रीतिर्हि परा मह्यं त्वयैतत् प्रतिवारिते।।
अर्थात्
इसलिए लक्ष्मण !अब तुम जाओ ।इस विषय में कोई सोच विचार न करो। यदि मेरे इस निश्चय में तुमने किसी प्रकार की अड़चन डाली तो मुझे महान् कष्ट होगा।
शापिता हि मया यूयं पादाभ्यां जीवितेन च।
ये मां वाक्यान्तरे ब्रूयुरनुनेतुं कथंचन।।
अहिता नाम ते नित्यं मदभीष्टविघातनात्।
अर्थात्
मैं तुम्हें अपने चरणों और जीवन की शपथ दिलाता हूँ,मेरे निर्णय के विरुद्ध कुछ मत कहो।जो मेरी इस कथन के बीच में कूदकर किसी प्रकार मुझसे अनुनय-विनय करने के लिए कुछ कहेंगे ,वे मेरे अभीष्ट कार्य में बाधा डालने के कारण सदा के लिये मेरे शत्रु होंगे। किसी को कुछ भी कहने का अवसर दिये बिना ही आज्ञा ही नहीं सौगन्ध देकर सबको मूक कर दिये।
अनुनय -विनय तक नहीं करने के लिए मना करना,बाधा उत्पन्न करने वाले को शत्रु कहना अनुचित था । इस घृणित कार्य को अभीष्ट की संज्ञा देना निन्दनीय था ।तथ्यहीन बातों को महत्त्व देना मर्यादित नहीं हो सकता । सबसे बड़ी बात तो यह है कि यहाँ भी राम ने छल का सहारा लिया , छल से सीता को वन भेजा , सीता ने तो मात्र वन बिहार की इच्छा जतायी थी ।उसे वन भ्रमण हेतु भेज कर निर्जन वन में छोड़ देना ,पति धर्म नहीं है ,साधरण मानव से भी ऐसे आचरण की अपेक्षा नहीं हो सकता है ,वे तो महाराजा राम थे , (मर्यादा पुरुषोत्तम ) उन्हें कैसे दोषमुक्त माना जा सकता है ?
आश्चर्य लगता है जब श्री राम अपने भाइयों से मंत्रणा कर रहे थे ,तब उनका यह कथन कि 'सीता को लेकर पुरवासियों और जनपद के लोगों में बड़ी निन्दा हो रही है ,इसके लिये बड़ा शोक है।जिस किसी भी प्राणी की अपकीर्ति लोक में सबकी चर्चा का विषय बन जाती है ,वह अधम लोकों अर्थात नरकों में गिर जाता है और जब तक उस अपयश की चर्चा होती है तब तक वहीँ पड़ा रहता है ।देवगण लोकों से अपकीर्ति की निन्दा और कीर्ति की प्रशंसा करते हैं । समस्त श्रेष्ठ महात्माओं का शुभ आयोजन उत्तम कीर्ति की स्थापना के लिये ही होता है '।
ये भ्रमित करने वाली बातें कह अपने को बचाने के उद्देश्य से उपरोक्त उद्धरण देना स्पष्टतः परिलक्षित होता है । किसी एक मानव के कहने से या समाज में असत्य अपवाद से कोई नरकगामी कैसे हो सकता है ? किसी सती साध्वी को कलंकित कैसे कोई कर सकता है ,किसी के अफवाह फ़ैलाने से कभी नरक नहीं हो सकता ,यह कोरी कल्पना है । भ्रमित कर अपने को पाक साफ बताने के अतिरिक्त कुछ नहीं । वे तो राजा थे ,भगवान थे ,उन्हें स्वर्ग नरक की कैसी चिंता ? अफवाह के कारण किसी निर्दोष को दंड देना तो पाप होना चाहिए , और इसका ज्ञान तो मर्यादा पुरुषोत्तम को जरूर रहा होगा । यह तो राज्योचित तो दूर की बात ,मानव धर्म के विरुद्ध था ।उस महान नारी को बिना सूचित किये वन में भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेना अत्यन्त अशोभनीय कार्य था ।
राम से यह अपेक्षित नहीं था ,जिनके कुल में नारी सदैव से पूजित होती रही हैं ,जिनके पिता अपनी पत्नियों का सदा सम्मान करते थे । युद्ध भूमि में उनके रथ के पहिये को हाथ का सहारा देने के कारण बिना सोचे समझे दशरथ ने वचन दे दिये ,जबकि पत्नी या पति एक दूसरे के पूरक होते हैं ,दुःख सुख में साथ देना पुनीत कर्तव्य होता है । जान की परवाह किये बिना पत्नी को उनके जान बचाने के कारण वे वरदान सदृश वचन दे दिये ,जिसका परिणाम अति घातक हुआ ।उस वचन से बंधे होने के कारण अपने प्राण प्रिय पुत्र को राजा भी नहीं बना सके ,साथ में १४ साल का वनवास भी दे दिये ।नारी का सम्मान इतना करते थे । पर राम ने तो मैथिलि को विवाह के समय अग्नि को साक्षी रख लिया गया वचन भी नहीं निभा पाए ।
राजा दशरथ सीता को राम संग १४ वर्ष हेतु वन में जाते देख द्रवित हो ,अपने मंत्री को भेज कर यह सलाह देते हैं कि जानकी को समझा कर लौटा लाना । मंत्री को अकेले आते देख विलाप करने लगे ,'कैसे जनकदुलारी वन में रह पाएंगी ,इतनी सुकुमारी कैसे कठोर जीवन जी पायेगी ,आदि विलाप करने लगे , अपने पुत्रों से अधिक पुत्रवधु की चिंता थी उनको । इतने महान पिता , जो नारी का इतना आदर करते थे ,उनके पुत्र श्री राम इतना बड़ा अनर्थ कैसे कर डाले ?
लोकोपवाद के भय से अपनी प्राणों से अधिक स्नेहमयी पत्नी को अपने से पृथक कर उनके जीवन को कैसे इतना जटिल बना दिए । दारुण दुःख व्यतीत करने को कैसे विवश कर दिए। उनको अपना यश ही सबकुछ लगा ।
मेरी दृष्टि में नारी के पतन के सूत्रधार राम ही थे , वे ही जनक थे ।राम के इस आचरण का कि पत्नी महत्वहीन है , उसकी अपनी कोई पहचान नहीं , कोई इच्छा नहीं , एक वस्तु सदृश है , इस बात का असर द्वापर युग में भी रहा । द्वापर में तो युधिष्ठिर असंख्य कदम आगे निकले । उन्होंने तो पत्नी द्रोपदी को दाव पर ही लगा दिए । युधिष्ठिर का यह कृत्य तो अत्यंत घृणास्पद है । लज्जाजनक ही नहीं नारी का घोर अपमान है ।
अर्जुन माता कुंती को आवाज़ दे यह कहते हैं कि क्या लाया हूँ , देखो माँ , सुनकर कुंती का यह कथन कि जो लाये हो बाँट लो सब मिलकर । यहाँ कुंती का आशय किसी वस्तु से था । उनके इस कथन को ब्रह्मवाक्य मान वस्तु सदृश पाँचो भाइयों की भार्या बनाना , द्रोपदी के साथ अन्याय करना था । इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी ,कितनी वेदनापूर्ण जीवन रहा होगा ?
द्युत क्रीड़ा में दाव पर लगाने के बाद , दुःशाशन का साड़ी खींचना ,कर्ण का लांछन लगाना , कितनी मर्मान्तक स्थिति रही होगी । द्रोपदी का वह करुण क्रंदन सुन भी वहां उपस्थित किसी ने सहायता नहीं की , आज भी उस दृश्य के कल्पना से ह्रदय विदीर्ण हो जाता है , कृष्ण को बुलाने पर कृष्ण ने लाज रख ली । नारी को भोग्य वस्तु समझाना द्वापर युग की ही देन है , उस युग में कृष्ण आकर रक्षा किये द्रोपदी की ।
त्रेता युग से ही नारी का ह्रास होने लगा और द्वापर में स्थिति और भी बिगड़ गयी , उसके बाद तो कलयुग में आदि से ही नारी अपमानित होती रही है ।
मुगलकाल में तो और भी स्थिति दयनीय हो गयी थी ।उन आततायियों ने दुर्गति कर दी थी ।
मेरी दृष्टि में नारी को 'वस्तु' समझने के पीछे मुख्य कारण यह भी है कि विवाह के समय उसका दान करने की प्रथा है और उसे बड़े इज्जत के साथ "कन्यादान " कहते हैं ! आप गौ दान करते हैं , पृथ्वी दान करते हैं , भोजन दान करते हैं, स्वर्ण दान करते हैं और भी वस्तुओं की दान करते हैं, तब अगर आप कन्या दान भी करते हैं तो कन्या को भी कहीं न कहीं आप वस्तु ही समझ रहे हैं न , भोग्य वस्तु और जब लोग इसमें गर्व अनुभव करते हैं तो फिर पुरुष तो जैसे गौ,पृथ्वी,स्वर्ण ,भोजन आदि को भोग्य मानता हैं वैसे ही कन्या को भी जो उसे दान में मिला हैं भोग्य ही मानेगा न !
नारी अपने गर्भ में जिस पुरुष को रखती है , जन्म देती है , असहनीय पीड़ा झेलने के बाद जन्म देती है , उस नारी का ऐसा अपमान , अत्यन्त दुःखद है ।
परापूर्व काल से अद्यपर्यंत नारी प्रताड़ित होती रही है , चाहे वह राजा हो या रंक ।अपने अपने तरीके से सबला को अबला बना शोषण करते आये हैं सब ।
आज की स्थिति देख ऐसा प्रतीत होता है , परापूर्व काल से शोषित होती आयी हैं , यदि ऐसी ही स्थिति रही तो शोषित होती रहेंगी ।
माता जानकी की तरह मरणोपरान्त तक परीक्षा देती रहेंगी और समाज मूक बन देखती रहेगी क्योंकि समाज पुरुष प्रधान जो ठहरा ।
डॉ. रजनी दुर्गेश
हरिद्वार
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