अग्नि के काष्ठ
खोजती माँ,
बीनती नित्य सूखे डंठल
सूखी टहनी, रुखी डालें
घूमती सभ्यता के जंगल
वह मेरी माँ
खोजती अग्नि के अधिष्ठान
मुझमें दुविधा,
पर, माँ की आज्ञा से समिधा
एकत्र कर रहा हूँ
मैं हर टहनी में डंठल में
एक-एक स्वप्न देखता हुआ
पहचान रहा प्रत्येक
जतन से जमा रहा
टोकरी उठा, मैं चला जा रहा हूँ
टोकरी उठाना...चलन नहीं
वह फ़ैशन के विपरीत –
इसलिए निगाहें बचा-बचा
आड़े-तिरछे चलता हूँ मैं
संकुचित और भयभीत
अजीब सी टोकरी
कि उसमें प्राणवान् माया
गहरी कीमिया
सहज उभरी फैली सँवरी
डंठल-टहनी की कठिन साँवली रेखाएँ
आपस में लग यों गुंथ जातीं
मानो अक्षर नवसाक्षर खेतिहर के-से
वे बेढब वाक्य फुसफुसाते
टोकरी विवर में से स्वर आते दबे-दबे
मानो कलरव गा उठता हो धीमे-धीमे
अथवा मनोज्ञ शत रंग-बिरंगी बिहंग गाते हों