मैंने अपनी कल्पनाओं को,
उडा़न भरते देखा है,
रेत के निशाँ,
जो लहरों से मिट गये थे,
उन कदमों को,
फिर से चलते हुए देखा है,
न गुज़रे पल दोबारा आते हैं
और न आता है वो मंज़र,
पर उन लम्हों के अक्स को मैंने,
फिर से गुलज़ार होते हुए देखा है,
मेरी कलम, मेरी भावनाओं की रूह है,
उसके एतबार से मैंने,
इस धरा को,
खुदा से सराबोर होता हुआ देखा है...
मैं अपने आस-पास की दुनिया,
कुछ यूँ बुनता हूँ,
किरदार नये, कहानीयां नयी चुनता हूँ,
उनके जरिये कुछ बातें कहता,
और कुछ बातें सुनता हूँ,
मैंने अपनी कलम से कई फलसफे छेडे़,
कभी नफरत से भरे इस समाज की बातें,
तो कभी मोहब्बत के तरानों से सजी वो रातें,
कभी उस गाँव की मिट्टी की महक,
तो कभी उन शहरों के शोलों की दहक,
मैंने बर्बादीयों को,
जश्न में घुलते हुए देखा है,
कई सवाल जिनके जवाब,
जिंदगी से नहीं मिले,
उन सवालों को,
बेवजह मिटते हुए देखा है......
देखा है मैंने आसमान से भी ऊपर,
एक सुनहरा पंछी उड़ता हुआ,
और सागर के उमड़ते तुफानों को,
मय के पयालों में छलकता हुआ,
मैंने चाँद की चाँदनी को,
मेहबूबा की आंखों में,
बिखरते हुऐ देखा है,
और चमकते सितारों को,
उसके लिबास में, लिपटते हुऐ देखा है….
वो कहते हैं कि कलम की उम्र,
उसकी स्याही से बयां होती हैं,
पर गालीब के शेर,
और प्रेमचंद की कहानियाँ,
मोहताज नहीं इस स्याही के,
कयोकि आज भी हर महफ़िल का आगाज़,
मैंने, इन्ही के कला़मों से होता हुआ देखा है....