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एकात्म मानववाद

25 सितम्बर 2024

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पं. दीनदयाल उपाध्याय का बचपन बहुत ही विकट स्थितियों में बीता, तो भी वे सदैव एक मेधावी छात्र के रूप में रेखांकित हुए। द्वि-राष्ट्रवाद की छाया ने जब भारत की आजादी की लड़ाई को आवृत्त कर लिया था, तब 1942 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माध्यम से उन्होंने अपना सार्वजनिक जीवन प्रारंभ किया। वे उत्तम संगठक, साहित्यकार, पत्रकार एवं वक्ता के नाते संघ कार्य को बल देते रहे।
1951 में जब डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई, तभी उनका राजनीति में प्रवेश हुआ। देश की अखंडता के लिए कश्मीर आंदोलन, गोवा मुक्ति आंदोलन तथा बेरुबाड़ी के हस्तांतरण के विरुद्ध आंदोलन चलाकर उन्होंने भारत की राजनीति में स्वतंत्रता संग्राम के मुद्दों को जीवित रखा। भारत की अखंडता के लिए उनका पूरा जीवन लगा। देश के लोकतंत्र को सबल विपक्ष की आवश्यकता थी; प्रथम तीन लोकसभा चुनावों के दौरान भारतीय जनसंघ एक ताकतवर विपक्षी दल के रूप में उभरा। वह विपक्ष कालांतर में विकल्प बन सके, इसकी उन्होंने संपूर्ण तैयारी की।
केवल तंत्र ही नहीं, मंत्र का भी विकल्प आवश्यक था। विदेशी वादों के स्थान पर उन्होंने एकात्म मानववाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एवं भारतीयकरण का आह्वान किया। 1951 से 1967 तक वे भारतीय जनसंघ के महामंत्री रहे। 1968 में उन्हें अध्यक्ष का दायित्व मिला। अचानक उनकी हत्या कर दी गई।
स्वाधीनता प्राप्ति के समय विश्व में  दो प्रणालियाँ बड़े जोरों पर थीं। एक जनतंत्र, जिसमें व्यक्ति स्वातंत्र्य, फलस्वरूप अत्यधिक संग्रह करने की छूट और दूसरी समाजवाद, जिसमें सरकार के नियंत्रण से सारे समाज
की रचना और व्यक्ति स्वातंत्र्य का पूर्ण अभाव। तत्कालीन नेतृत्व ने "लोकतांत्रिक समाजवाद" की घोषणा की, जो अपने में ही एक- दूसरे के विरोधी शब्द हैं। इसीलिए नेतृत्व को विश्व में साम्यवाद के बिखराव के बाद धीरे-धीरे लोकतंत्र के सहारे पूँजीवाद की ओर बढ़ना पढ़ा। दीनदयालजी ने पूँजीवाद का उत्तर समाजवाद को नहीं माना, बल्कि अपने देश की प्राचीन पद्धतियों का चिंतन कर "एकात्म मानववाद" के सिद्धांत पर जनसंघ को आगे बढ़ाया। इसमें व्यक्ति और समाज, दोनों का ही अपना-अपना स्थान है और दोनों परस्पर विरोधी नहीं हैं। यह रचना अखिल मंडलाकार रचना है, जहाँ व्यक्ति, परिवार, गाँव, प्रांत, देश और विश्व में ही नहीं, समस्त सृष्टि के साथ एकात्मकता है। यह वास्तव में भारतीय चिंतन का सार है। 'सर्वे भवंतु सुखिन:' 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का व्यावहारिक रूप है।
पश्चिम में सभी बातों में भेद है। साम्यवाद में भी साम्य नहीं है। वर्ग- भेद और संघर्ष ही उसका आधार है। हमने संघर्ष को आधार नहीं माना। संघर्ष यहाँ भी हो सकता है, पर वह हमारी प्रकृति नहीं, आधार नहीं। हमने ईर्ष्या, द्वेष आदि को षडरिपु माना। हमने इस संघर्ष को, दुर्गुण को आधार नहीं बनाया। हमारा आधार एकात्मकता का है, सद्गुणों का है। यहाँ भी छुआछूत, जाति-पाँति आदि अनेक दुर्गुण उत्पन्न हुए, परंतु हमने उन्हें मिटाने के प्रयत्न किए। जैसे संत रामानंद ने कहा-
जाति पाँति पूछे नहिं कोई।
हरि को भजे सो हरि का होई ॥
- भारत सोनी

   

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