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#फ्रेंडशिप डे

3 अगस्त 2022

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सुबह के छः बजे थे । अचानक फ़ोन की घंटियाँ बजने लगीं ट्रिन.... ट्रिन... ट्रिन। मैं जमहाइयाँ लेते हुए सोचने लगी कि इतने तड़के सुबह किस कमबख्त को हमारी याद आ गई। फ़ोन उठाया तो बड़ी मीठी सी आवाज सुनाई दी....मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं मेरे मित्र सरस... अचानक जैसे मेरी तंद्रा टूटी ...कौन?  बड़ी रुंधी सी आवाज आई... मुझे भूल गयी मित्र मैं... रेशमा । अतीत के किसी कोने में जैसे खलबली मच गई ...अरे रेशमा ! कैसी हो दोस्त । मुझे क्षमा करना दोस्त ! मैं तुम्हारी आवाज न पहचान पाई। अरसों-बरसों के बाद मित्र तुमने याद किया । तुम्हें मेरा नंबर कैसे मिला? रेशमा ने हँसते हुए कहा कि - कमबख्त फेसबुक से ।  चलो मैं तुमसे थोड़ी देर बाद बात करूँगी ...रसोई में बड़ा काम फैला है ..यह कहते हुए उसने रिसीवर को रख दिया ।लेकिन मेरे अतीत की यादों को जैसे उसने झकझोर कर रख दिया । यकीनन एक सच्चा मित्र अभावों की पूर्ति होता है । जो हमारी द्वंद और उलझनों से भरे जीवन में कुछ पल शांति और सुकून के दे जाता है । आपको यकीनन हमारे धड़कन से स्पंदित भावना के आवेग से उपजे ये शब्द प्रतीत हो सकते हैं ।पर यकीन मानिये!  यदि आप गौर फरमाएंगे तो यह कहानी आपको आपकी ही लगेगी । जब हम अपने 'स्व' को अभिव्यक्त करने के उद्देश्य के साथ व्यक्तित्व को निराकृत करने की प्रेरणा लेते हैं तो हमें सहज वह मित्र याद आ जाता है जो अपनी पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ हमारे दुख के पलों में अनुभूतियों का साक्षी बना था । कुछ ऐसी ही है मेरी मित्र रेशमा । बरसों पहले बेरहम काली निर्मम रात ने जब मेरे पिता को छीना तो वह रेशमा ही थी जो हमारी पीड़ा और दुख के गहनतम क्षणों को हमारे साथ -साथ भोग रही थी । उसका साथ पूजा की तरह  पवित्र और सात्विक  और सर्वथा निर्विकार रहा । उसका अपनत्व मन की गहराइयों को छूते हुए हमारी धमनियों और शिराओं में जैसे बहने लगा । याद आने लगा वह पल जब अपनी छोटी सी मुठ्ठी में 2000 के नोट को छुपाते हुए मेरी हथेली में रखते हुए उसने कहा था "मेरे पास दोस्त ! बस इतना ही है, शायद तुम्हारे काम आए" और मैं उससे  लिपट कर घंटों रोई थी ।  हमारा मित्रता का रिश्ता मर्यादाओं व परंपराओं की जंजीरों से जकड़ा हुआ  कदाचित नहीं था बल्कि यह तो नदी जैसे अपने उद्गम से पूरे उफान के साथ जैसे समस्त बंधनो को तोड़ कर आगे बढ़ती है। कुछ ऐसी ही उड़ान थी अपने दोस्ती की ....और बरबस मुझे कबीर साहिब की पंक्तियां याद आने लगीं........

सुख में सुमिरन न किया, दुःख में किया जो याद ।

कहत कबीर दास की, कौन सुने फरियाद ।।

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न  कोय।

जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय।।

और ...मेरे होंठ बरबस बुदबुदाते हुए कहने लगे कि मित्रता का खुद का तय किया गया रिश्ता वाकई लाजबाब है । इसका स्वाद सच्चा और अनूठा है ।

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