न जाने मार्च महीने के आते आते क्यों मन उस चातक की तरह बदालों को घूरता रेहता है की सूखे होंट और निर्मम गर्मी की कोई आहट ही आ जाये, अप्रैल आगया भाई कोई गाज़र का पता तो बतलाये ? 6-7 महीने पहले बाबा बोल गये थे "की मत घबराओ मैं आऊँगा साथ अपने तरो ताज़ा ऑर्गेनिक गाज़र के बीज़ भी साथ में लाऊंगा" ... मार्च बीता, बीत रहा है अप्रैल भी... बाबा को ढूंड रहे है इस गाँव के चातक भी ।
मन्दिर गया, आश्रम में भी ढूंढा, निराशा से न जाने कितने रातों को आँखें तक न मूंदा ।
उमींदे अब ना उमीन्दी में बदल ही रही थी की तभी इक शाम मानो आया कोई सुनामी,
किसी न्यूज़ चैनल में दिखा की "ऑर्गेनिक गाज़र" के वादे करने वाले बाबा भी आख़िर निकले फ़र्ज़ी...
हम तो मानो जीते जी मर गये,
बाबा के भरोसे की आस में हम कंगाल हो गये ।
घर पे बोल रखा था की हरे-भरे, तरो-ताज़ा वो भी ऑर्गेनिक गाज़र लाऊंगा,
अब न्यूज़ पर बाबा वाले ख़बर के बाद किस मुँह से घर जाऊँगा ?
अब तो भगवान, बाबा क्या इंसानों से भी बच कर रहूँगा,
कभी गाज़र खाने को फ़िर से मन करे तो अब से बाज़ार में ही जाऊँगा ।।
- प्रयासी कवि।