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घर का भेदी

1 नवम्बर 2021

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घर का भेदी

घर का भेदी ,वह आस्तीन का सांप..

ढूंढ ढूंढ कर हो गई हूं परेशान
दूभर कर दिया जीना जिसने
बन गया जो मेरे लिए अभिशाप

उस की वजह से दोस्त हो गए दूर
प्रियजन सभी होने लगे नाराज़
रिश्ते होने लगें  हैं धूल धूसरित 
सुन्दर  सपने हो  रहे  हैं चकनाचूर

है कौन,मेरी ज़िन्दगी से खिलवाड़
जो कर रहा ,होकर यूं बेमुरव्वत!
मेरी तो है किसी से दुश्मनी नहीं
मुझ पर क्यों दुखों का यह पहाड़!

दिखाए उसने कितने रंगीन सपने
बिछाए तरह तरह के जाल
मैं मदहोश, कितनी नादान
नज़र न आए उसके आगे अपने

क़समें वादे उसके ,सारे जंजाल
आँखें मूंद , जान बूझ कर
करने  दी  उसे  मनमानी
सोचा नहीं कभी,होगा यह हाल!

दी हर तरह की छूट ,माना था उसे अपना
उस  नामुराद  बन्दे को, जी जान से!
देख रही  हूँ  धीरे धीरे नतीजा उसका
देख  रही हूं तितर बितर  होता  हर सपना

दोस्त को सीने से लगाया,दिया वह प्यार
कैसे न कर देती उस पर निछावर
अपनी  ख़ुशियाँ , अपना  संसार
पर वह तो निकला छिपा रुस्तम,होनहार

ढूंढते ढूंढते ,थक कर चूर,हो गई निढाल
बैठ गई एक टीले पर -आंखें थी नम
क्या सोचा था क्या हो गया मेरे साथ
किस की वजह से है आज मेरा यह हाल?

मैं या मेरा दोस्त..है कहां वह ,नज़र नहीं आता
कोई जगह नहीं छोड़ी ढूंढा हर छोर
अब रह गई है कौन सी जगह ऐसी
औंर कहां कहां देखूं  ,अब यह सर है चकराता

अचानक आई आवाज़,अरे नादान,सुन मेरी बात
क्यों खाता है ठोकरों दर दर की
बच्चा बगल में ढूंढे शहर में  तू
झाँक ज़रा अपने अन्दर, आज तेरी नई शुरुआत

दुबक कर बैठा हुआ है शर्मिन्दा,आज तेरे अन्दर
है तेरा  मन ही वह दोस्त जो बन बैठा
तेरे   ही  आस्तीन  का   विषैला   सांप
उसकी फ़ितरत जान जा तू,बन जाएगा सिकन्दर

ले ले अपने हाथ अपने मन की लगाम
निभा दोस्ती उससे करने न दे हुकूमत
घर का भेदी न बनने दे  उसे कभी
दे न इजाज़त ,काफ़ी है इतनी लगाम!


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