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आज का सच

18 सितम्बर 2021

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आज का सच

यह कहानी  तो नही  है पर सच  का एक और प्रतिरूप है।

एक तस्वीर  जो हम सब  के ज़हन में घर कर गई  है वह है
उस असहाय स्त्री  की जिसकी आंखों से आंसुओं की अविरल बरसात बहती है-उस तस्वीर  को थोड़ी देर एक ओर कर देते हैं।
एक और तस्वीर वृद्ध  माता पिता की,उनके  दयनीय  चेहरे,उनके टूटे हुए सपनों की---जिन्हें बार बार अपनी संतान  को याद दिलाना पड़ता है कि किस तरह अपना पेट काट कर उन्होंने उन्हें पढ़ा लिखा  कर बड़ा किया,कि उनका कर्तव्य बनता है वह भी अपने माता-पिता  के बुढ़ापे का सहारा बनें।और उनकी यह अपेक्षा  केवल अपेक्षा  नहीं उनका हक़ है।

      एक  और पहलू ,एक और तस्वीर  जिसमें अभी माता-पिता वृद्ध भी नहीं है,असहाय भी नहीं परन्तु  संतान से ढेर सारी  अपेक्षाएं हैं --बेटा/बेटी उनका समाज  में सम्मान और कीर्ति का साधन बन कर  जीवन पर्यन्त उनके आभारी  रहेंगे।जीवन नैया बिल्कुल ऐसे पार लगेगी जैसा उन्होंने  सोचा था!

एक और तस्वीर वह जिसमें माता-पिता में से कोई एक
ज़िन्दगी  के अकेलेपन से जूझने के लिए  बाध्य  हो गया
है-जो बच्चों से इतनी आस लगाए बैठा था कि उसने कभी भी यह नहीं सोचा  कि वह कबाब  में हड्डी  बन कर रह जाएगा!
चाहे वह उसे कुछ प्रत्यक्ष  में कहें न कहें,चाहे ऊपर ऊपर से उनके रवैये आपत्तिजनक  न हों----मगर कुछ तो है जो खटकता है! खुद की मनस्थिति भी तो पहले सेअधिक  भावुक हो गई है।पहले अपना घर था,अपना रोब चलता (और यह बात माता-पिता  दोनों के लिए  ही लागू  होती है है)।
   कितनी आस लगाए बैठे थे ज़िंदगी  से---सपने राख हो गए! कुछ सपने वह थे जिनमें प्यार  और स्नेह के सिवाय  किसी और चीज़ की आकांक्षा  ही न थी--और कुछ  ऐसे जिनमें आकांक्षाओं की शुरुआत  और अन्त का पता भी न था--अन्दाज़ लगाना और समझ पाने की गुंजाइश  ही नहीं!
वैसे तो इसमें लिंग,जाति ,धर्म के मसले जोड़ें तो अपने इस विषय को  काफ़ी  विस्तरित  करना  पड़ेगा ।
    अभी मेरा सवाल यह है कि ऐसी परिस्थिति का ज़िम्मेदार कौन है -क्या पूरा दोष सन्तान पर लादा जा सकता है?क्या  हमारी परवरिश में कोई  कमी तो नहीं रह गई?खान पान और रहन सहन का महत्व  बहुत है इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता मगर मानसिक स्तर पर भी उनका खान पान पौष्टिक  है या नहीं, संतुलित  है या नहीं इस बात का ध्यान  रखना उतना ही या उससे भी अधिक महत्व रखता  है!
       जाने अनजाने  बेटियों में हीन भावना  पैदा  करना ,जो ज़िन्दगी भर नासूर बन उन्हें हीन भावना  से ग्रस्त  कर उनके मन में कड़वाहट ,क्लेश ,नफ़रत और संवेदनहीनता  भर दे;
जो माता-पिता पर कभी न कभी पहाड़  बन टूट पड़े तो अचरज की क्या बात  है? भाइयों का राजयोग उन्हें  क्यों न अखरे?
      और बेटे बेचारे सौ में से सौ नम्बर न लाएं तो हो  गया न सब  कुछ  करा  धरा बेकार! उस के ऊपर दबाव  हर पल बना रहता है-शादी हमारी मर्ज़ी से होगी,बहू हमारी देख रेख करेगी हमारा कहना मान कर हमारी इज्ज़त का सदा ख्याल  रखेगी। हम तुम्हारे साथ ही रहेंगे -यह हमारा हक़ है और तुम्हारा  कर्तव्य ।
       अब सबसे पहले नज़र हम ख़ुद पर डालें। क्या  हम
ख़ुद कर्तव्य की कसौटी पर खरे उतरे हैं?अगर उत्तर  एक बेझिझक ' हां ' हैं तो किसी को कुछ सिखाने समझाने  की
ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी । अगर 'न' में है तो तो जवाब के लिए  शोध करने की आवश्यकता नहीं है। अपने आगे बड़े बड़े अक्षरों मे लिखा मिलेगा"जैसी करनी ,वैसी भरनी"!
कभी कभी उत्तम  परवरिश का नतीजा भी दुखदायी  हो सकता है। दूसरी  ओर आजकल  के  हालात कुछ ऐसे हैं कि विदेश में पढ़ने वाले या नौकरी करने वाले चाह कर कभी तो न चाह कर कभी अपनी  मजबूरी का हवाला  दे कर,माता-पिता  की ज़रूरतों को देख कर भी अनदेखा कर  देते हैं-
उनकी आवाज़ सुन कर भी अनसुनी कर देते हैं।
       मेरी बात से ,हो सकता है ,काफ़ी लोग असहमत हों,फिर  भी आपके आगे रखना चाहूंगी ।
         मेरी अपनी ज़िंदगी में ऐसे तूफ़ान नहीं आए जिनकी वजह से मैं निराश या चिंतित हो जाऊं कि मेरा क्या होगा  ,कैसे गुज़रेगी जीवन संध्या -न ही मैं उन मुद्दों से अनअवगत हूं जो जीवन  को अभिशाप बना कर रख देते हैं।
इस विषय  में मैं आपके आगे  केवल अपना दृष्टिकोण  रख रह हूं जो मुझे लगता है हमारी उलझन को कुछ हद तक सुलझा  सकता  है।
       हम सभी,हैं तो इन्सान -गल्तियां करते हैं तो उन्हें  सुधारने  की  हम में क्षमता भी है।अब तक माता-पिता , जाने अनजाने  ही बच्चों पर निर्भर  होने का,उनके लिए और केवल उनके लिए जीने की जैसे कसम खाए बैठे हैं,यह भूलकर कि उनकी  ख़ुद की भी एक ज़िन्दगी हैंं --- इस ज़िंदगी  को मान्यता  देना हर एक का फ़र्ज़ बनता  है।एक ओर अपने को बच्चों  तक ही सीमित  कर लेना और दूसरी  ओर उन्हें बंधन  में बाधित  करना -दोनों से ही हम विचारशील इन्सान बचें-इसी में हमारा श्रेय है।

परवरिश में किसी तरह की कमी न हो,परन्तु अपेक्षाओं की अति न हो- संवेदनशीलता जीवन की सबसे बड़ी सीख हो,
हर जीव से ,हर प्राणी से समानभूति का रिश्ता , ऊंच नीच से परे, तो इतनी मज़बूत नींव उन्हें भटकने न देगी।
   और सबसे बड़ी बात यह कि यदि हम अपने अपने दायरों में रह कर रिश्ते  संजोए  और उन्हें मज़बूत करें तो वह सुदृढ  और सुन्दर  रहेंगे,उनकी गरिमा  जीवन पर्यन्त बनी रहेगी।
अपनी  छोटी सी कुटिया  सही ,वह अपनी हो और उस पर हमारा  ही अधिकार  हो।ज़रूरी नहीं है कि साथ रह कर ही खुश रहा जा सकता है! मुझे लगता है समझदारी से हमें आपस में ऐसी व्यवस्था  करनी चाहिए  कि वह भी खुश हम भी खुश। गिले शिकवों को दूर ही रखें पनपने का मौका ही न दें ।
      शुरू से हम अपनी प्रकृति  के हिसाब  से अपनी समय का सदुपयोग  करें,समवयस्क स्नेही जनों के साथ समय बिताएं,पढ़ने पढ़ाने के शौक पूरे करें,मनोरंजन के लिए  बच्चों पर नहीं ,खुद पर निर्भर हों तो ज़िंदगी  को खुशगवार होने से कोई  नहीं रोक  सकता ।स्वास्थ्य की समस्याएं नकारी नही  जा सकती मगर सुलझाई जा सकती हैं।
"यह सब  कहना  आसान है मगर करना  आसान  नहीं "
कहने वाले  बहुत लोग हैं।पर आज के बदलते माहौल में ऐसा करना  हम सब के हित में हैं।उठाते जाएं तो ढेर सारे मुद्दे हैं परन्तु अभी इतना  कहना  चाहूंगी कि चाहे खुद का घर हो या वृद्धाश्रम  हो ,संतान कितनी ही अच्छी हो,ज़िम्मेदार हो,समझदार  हो----या गैरजिम्मेदार- हमें एक तैयारी  के साथ जीना ही होगा कि जब तक हो सके,जितना  हो सके, हमारे स्वाभिमान  को ठेस न पहंचे ----स्वस्थ,खुशहाल ज़िंदगी जिएं ।प्यार अपनी  जगह मगर उसे संजोए रखना हम सभी पर है------ रिश्तों की तौहीन न हो! इसका  मौका  दें ही नही हम,या फिर ऐसी परिस्थिति  के चलते  ठोस कदम उठाने  का प्रयत्न अवश्य करें ताकि बिगड़ बात संभल जाए।
पढ़ी लिखी -सक्षम संतान के  पास  जीविकोपार्जन के सभी साधन उपलब्ध  हैं-हमें पाई पाई बचा कर उनके  लिए  जमा करने की आवश्यकता  नहीं है।ख़ुद  पर थोड़ा  सा खर्चा  हमें ग्लानि  से भर दे यह  सरासर अन्याय  होगा ।
    वृद्धावस्था  से डरें न हम,हंसी खुशी जीवन  की रही सही घड़ियां बिताएं,गिले शिकवे दूर भगाएं। जीवन  संध्या का आव्हान  करें और बदलते आज को समझ कर उसकी आवभगत आज के पैमानों को ध्यान  में  रख कर करें।
जब तक  पुरानी पद्धति  और परंपराओं को आज के माप दंड से नापा जाएगा,हार के सिवाय कुछ भी हाथ न लगेगा।

आयाम बदल रहे हैं, अपनी सोच को भी बदलने का वक्त आ गया है! यही आज का सच है आज की चुनौती  भी!




      


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